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विवागे-विपाककाल में, दुहं-दु:खरूप, होइ-हो जाता है।
मूलार्थ-इसी प्रकार स्पर्श-विषयक प्रद्वेष को प्राप्त हुआ जीव भी दुःख-समूह की परम्परा को प्राप्त होता है और दुष्ट चित्त से वह उस कर्म का उपार्जन करता है जो विपाककाल में उसके लिए दुःख का हेतुभूत हो जाता है। ___टीका-तात्पर्य यह है कि दूषित अध्यवसाय से उपार्जन किया हुआ कर्म ही उसके लिए दुःखरूप हो जाता है।
अब राग-द्वेष के त्याग का फल वर्णन करते हुए फिर कहते हैंफासे विरत्तो मणुओ विसोगो, एएण दुक्खोहपरंपरेण । न लिप्पई भवमझे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥.८६ ॥
स्पर्श विरक्तो मनुजो विशोकः, एतया दुःखौघपरम्परया ।
न लिप्यते भवमध्येऽपि सन्, जलेनेव पुष्करिणीपलाशम् ॥ ८६ ॥ .. पदार्थान्वयः-फासे-स्पर्श में, विरत्तो-विरक्त, मणुओ-मनुष्य, विसोगो-शोक से रहित, एएण-इस, दुक्खोहपरंपरेण-दुःखसमूह की परम्परा से, भवमझे-संसार में, वि संतो-रहता हुआ भी, न लिप्पई-लिप्त नहीं होता, वा-जैसे, जलेण-जल से, पोक्खरिणीपलासं-कमलिनी का पत्र लिप्त नहीं होता।
मूलार्थ-स्पर्श में विरक्त और शोक-रहित पुरुष संसार में रहता हुआ भी दुःख-परम्परा से इस प्रकार लिप्त नहीं होता, जैसे सरोवर में रहता हुआ भी कमल-पत्र जल से लिप्यमान नहीं होता। ___टीका-इस प्रकार उक्त १३ गाथाओं के द्वारा स्पर्श-इन्द्रिय सम्बन्धी विषय वर्णन किया गया है और प्रत्येक इन्द्रिय के लिए १३ गाथाएं कही गई हैं। इस प्रकार कुल ६५ गाथाओं में पांचों इन्द्रियों का वर्णन हुआ है।
अब इसके आगे मन के विषय में वर्णन करते हैं, यथा
मणस्स भावं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ८७ ॥
मनसो भावं ग्रहणं वदन्ति, तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः ।
तं द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, समश्च यस्तेषु स वीतरागः ॥ ८७ ॥ पदार्थान्वयः-मणस्स-मन का, भावं-भाव को, गहणं-ग्राह्य, वयंति-कहते हैं, अर्थात् तीर्थंकरादि, तं-उस, मणुन्नं-मनोज्ञ भाव को, रागहेउं-राग का हेतु, आहु-कहा है, तं-उस, अमणुन्नंअमनोज्ञ भाव को, दोसहेउं-द्वेष का हेतु, आहु-कहा है, जो-जो, तेसु-उनमें, समो-सम है, स-वह, वीयरागो-वीतराग है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२६८] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अल्झयणं