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________________ पदार्थान्वयः - घाणस्स - घ्राण को, गंध - गन्ध का, गहणं-ग्राहक, वयंति - कहते हैं तीर्थंकरादि, तं-वह, रागहेउं-राग का हेतु, तु-तो, मणुन्नं- मनोज्ञ, आहु-कहा है, तं - वह, अमणुन्नं- अमनोज्ञ, दोसहेउं - द्वेष का हेतु, आहु-कहा है, जो-जो, तेसु - उनमें समो - समभाव रखता है, स- वह, वीयरागो - वीतराग है। मूलार्थ - प्राण-इन्द्रिय अर्थात् नासिका को गन्ध का ग्राहक कहते हैं, उनमें से मनोज्ञ गन्ध तो राग का हेतु है और अमनोज्ञ द्वेष का कारण है, परन्तु इनमें जो समभाव रखता है, वही वीतराग है। टीका - घ्राण-इन्द्रिय गन्ध का ग्रहण करती है, अर्थात् जब गन्ध के परमाणु घ्राण- इन्द्रिय में प्रविष्ट होते हैं, तब वह उनका अनुभव करती है। उनमें से सुन्दर गन्ध वाले परमाणु तो राग के उत्पादक होते हैं और दुर्गन्ध के परमाणु द्वेष को उत्पन्न करते हैं। जो पुरुष इन सुगन्ध और दुर्गन्ध के परमाणुओं के सम्पर्क से भी राग-द्वेष नहीं करता, अर्थात् इनमें समभाव रखता है वही वीतराग है। अब फिर कहते हैं गंधस्स घाणं गहणं वयंति, घाणस्स गंधं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नाहु ॥ ४९ ॥ गन्धस्य नाणं ग्राहकं वदन्ति, घ्राणस्य गन्धं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥ ४९ ॥ पदार्थान्वयः - गंधस्स गन्ध का, घ्राणं घ्राण- इन्द्रिय को, गहणं-ग्राहक, वयंति - कहते हैं, घाणस्स - प्राण- इन्द्रिय का, गंध-गन्ध को, गहण - ग्राह्य, वयंति - कहते हैं, रागस्स हेउं र - राग का हेतु, समणुन्नं- मनोज्ञ गन्ध को, आहु-कहा है, दोसस्स हेउं द्वेष का हेतु, अमणुन्नं- अमनोज्ञ गन्ध को, आहु-कहा है। मूलार्थ - गन्ध को नासिका ग्रहण करती है और नासिका का ग्राह्यविषय गन्ध को कहा गया है, इनमें सुगन्ध राग का हेतु है और दुर्गन्ध द्वेष का कारण है। टीका - इस गाथा की व्याख्या पूर्व में हो चुकी है (चक्षु और श्रोत्र के प्रकरण में ) । घ्राण-इन्द्रिय गन्ध की ग्राहक हैं और गन्ध को उसके द्वारा गृहीत होने से ग्राह्य कहा जाता है। तात्पर्य यह है कि इन दोनों का आपस में ग्राह्यग्राहकभाव सम्बन्ध माना गया है। आत्मा की राग-द्वेष - परिणति से सुन्दर गन्ध तो राग का कारण बन जाता है और कुत्सित गन्ध द्वेष का । ये सब आत्मा के अन्दर रहे हुए अध्यवसायों पर निर्भर है, कारण यह है कि राग-द्वेष के वशीभूत हुई यह आत्मा अनुकूल पदार्थों में रुचि उत्पन्न करती है और प्रतिकूल पदार्थों से घृणा करती है। अब गन्धविषयकं बढ़े हुए राग के कटु परिणाम का दिग्दर्शन कराते हुए सूत्रकार फिर कहते हैं. उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४९] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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