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________________ समभावभावित होने से वीतराग कहा जाता है। उक्त कथन का सारांश यह है कि शब्द का ग्राहक क्षेत्र ही है, यही उसका लक्षण है तथा शब्द यह श्रोत्र का विषय होने से उसके द्वारा ग्रहण किया जाता है, परन्तु शब्द का ग्रहण होने के अनन्तर उसका अच्छा या बुरा प्रभाव आत्मा पर पड़ता है, जहां पर कि राग-द्वेष की परिणति होती है। इस विचार को लेकर ही प्रिय और अप्रिय शब्द को क्रमशः राग और द्वेष का हेतु बताया गया है, परन्तु जिस आत्मा में भावों की सम परिणति होती है, उस पर शब्द की प्रियता और अप्रियता का कोई प्रभाव नहीं पड़ता अर्थात् वह प्रिय शब्द को सुनकर उसमें अनुरक्त नहीं होता और अप्रिय शब्द से उसमें द्वेष की उत्पत्ति नहीं होती। इस हेतु से उसको वीतराग कहा गया है इत्यादि। अब इसी विषय को पल्लवित करते हुए फिर कहते हैं सददस्स सोयं गहणं वयंति, सोयस्स सददं गहणं वयंति । रागस्स हेउं समणुन्नमाहु, दोसस्स हेउं अमणुन्नमाहु ॥ ३६ ॥.. शब्दस्य श्रोत्रं ग्राहकं वदन्ति, श्रोत्रस्य शब्दं ग्राह्यं वदन्ति । रागस्य हेतुं समनोज्ञमाहुः, द्वेषस्य हेतुममनोज्ञमाहुः ॥ ३६ ॥ पदार्थान्वयः-सहस्स-शब्द का, सोयं-श्रोत्र को, गहणं-ग्राहक, वयंति-कहते हैं-और, सोयस्स-श्रोत्र का, सह-शब्द को, गहणं-ग्राह्य, वयंति-कहते हैं, रागस्स-राग का, हेउं-हेतु, समणुन्नं-मनोज्ञ को, आहु-कहा है, दोसस्स-द्वेष का, हेउ-हेतु, अमणुन्नं-अमनोज्ञ को, आहु-कहा गया है। मूलार्थ-श्रोत्र-इन्द्रिय को शब्द का ग्राहक और शब्द को श्रोत्र का ग्राह्य कहते हैं। जो मनोज्ञ शब्द है वह राग का हेतु है और अमनोज्ञ शब्द को द्वेष का कारण बताया गया है। टीका-तीर्थंकर ने शब्द और श्रोत्र-इन्द्रिय का परस्पर ग्राह्य-ग्राहक सम्बन्ध प्रतिपादन किया है, अर्थात् श्रोत्र-इन्द्रिय शब्द का ग्रहण करती है और शब्द उसके द्वारा ग्रहण किया जाता है, परन्तु इनमें जो प्रिय शब्द है, वह राग का उत्पादक है जो कटु शब्द है उससे द्वेष की उत्पत्ति होती है। इस विषय की उपयोगी अधिक व्याख्या पूर्व गाथाओं में-चक्षु-इन्द्रिय के प्रकरण में कर दी गई है, इसलिए यहां पर नहीं की गई। ___ प्रिय शब्द में आसक्त होने से जो हानि होती है, अब उसका वर्णन करते हुए कहते हैं - सद्देसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं, अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे हरिणमिगे व मुद्धे, सद्दे अतित्ते समुवेइ मच्चु ॥ ३७ ॥ शब्देषु यो गृद्धिमुपैति तीव्राम्, अकालिकं प्राप्नोति स विनाशम् । . रागातुरो हरिणमृग इव मुग्धः, शब्देऽतृप्तः समुपैति मृत्युम् ॥ ३७ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ २४२] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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