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________________ का पत्र। मूलार्थ-रूप के विषय में विरक्त मनुष्य शोक से रहित होता हुआ दुःखसमूह की परम्परा से, संसार में रहता हुआ भी दुःखों से लिप्त नहीं होता। जैसे जल में रहता हुआ भी कमलिनी का पत्र जल से लिप्यमान नहीं होता। ___टीका-रूपादि के विषय में अनुराग का परित्याग कर देने वाला शोक का अनुभव नहीं करता तथा दु:ख परम्परा के सम्पर्क से भी रहित होता है अर्थात् उसको दुःख-समूह नहीं सताता। एवं विरक्त पुरुष की इस संसार में वही स्थिति होती है जो कि जल में रहने वाले कमलिनीदल की है अर्थात् जैसे जल में रहता हुआ भी कमलिनीदल जल के सम्पर्क से अलग रहता है, उसी प्रकार संसार में रहता हुआ भी विरक्त पुरुष संसार के दुःखों से लिप्त नहीं होता। कारण यह है कि दु:ख के हेतु राग और द्वेष हैं, उनके परित्याग से तन्मूलक दुःख का भी अभाव हो जाता है। इसलिए रूपविषयक विरक्त मनुष्य विगतशोक होता हुआ सांसारिक दुःखों से भी सर्वथा अलिप्त रहता है। यहां पर वा शब्द 'इव' के अर्थ में आया हुआ है। __इस प्रकार चक्षु के विषय में वर्णन करने के अनन्तर अब सूत्रकार श्रोत्रेन्द्रिय के विषय में कहते हैं, यथा- .. सोयस्स सदं गहणं वयंति, तं रागहेउं तु मणुन्नमाहु । तं दोसहेउं अमणुन्नमाहुः, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥ ३५ ॥ श्रोत्रस्य शब्दं ग्रहणं वदन्ति, तं रागहेतुं तु मनोज्ञमाहुः । तं द्वेषहेतुममनोज्ञमाहुः, समश्च यस्तेषु स वीतरागः ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः-सोयस्स-श्रोत्र का, सदं-शब्द को, गहणं-ग्राह्य, वयंति-कहते हैं, तं-वह, मणुन्नं-मनोज्ञ, रागहेउं-राग का हेतु, आहु-कहा है, तं-वह, अमणुन्नं-अमनोज्ञ, दोसहेउं-द्वेष का हेतु, आहु-कहा है, य-और, जो-जो, तेसु-उनमें, समो-समभाव रखता है, स-वह, वीयरागो-वीतराग है, तु-प्राग्वत्। मूलार्थ-श्रोत्र का ग्राह्य विषय शब्द है। मनोज्ञ शब्द तो राग का हेतु है और अमनोज्ञ द्वेष का कारण है, परन्तु जो इन दोनों तरह के शब्दों में सम भाव रखता है वह वीतराग है। टीका-चक्षु-विषयक वर्णन करने के अनन्तर अब श्रोत्र के विषय में कहते हैं। श्रोत्र-इन्द्रिय शब्द का ग्राहक और शब्द श्रोत्र का ग्राह्य विषय है। तात्पर्य यह है कि जिस समय शब्द के परमाणु श्रोत्र में प्रविष्ट होते हैं तब श्रोत्र उनको ग्रहण करता है, इसलिए शब्द को श्रोत्र का विषय कहा गया है। इनमें जो प्रिय शब्द है, वह तो राग का हेतु है और जो कटु अर्थात् अप्रिय शब्द है उसको द्वेष का कारण बताया गया है, परन्तु जो पुरुष इन दोनों प्रकार के शब्दों को सुनकर भी समभाव में रहता है अर्थात् प्रिय शब्द को सुनकर उसमें अनुरक्त नहीं होता और कटु शब्द के प्रति द्वेष प्रकट नहीं करता वह उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२४१] पमायट्ठाणं बत्तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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