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उवासगाणं पडिमासु, भिक्खूणं पडिमासु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥११॥
उपासकानां प्रतिमासु, भिक्षूणां प्रतिमासु च ।
यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ ११ ॥ पदार्थान्वयः-उवासगाणं-उपासकों की, पडिमासु-प्रतिमाओं में, य-फिर, भिक्खूणं-भिक्षुओं की, पडिमासु-प्रतिमाओं में, जे भिक्खू-जो भिक्षु, जयई-यत्न करता है, से न अच्छइ मंडले-वह संसार में नहीं ठहरता।
___ मूलार्थ-श्रावकों की ग्यारह और भिक्षुओं की बारह प्रतिमाओं के विषय में जो भिक्ष सदैव उपयोग रखता है, वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।
टीका-प्रस्तुत गाथा में चारित्र के विशोधक श्रावक की ११ प्रतिमाओं तथा भिक्षु की १२ प्रतिमाओं का उल्लेख किया गया है। प्रतिमा का अर्थ है प्रतिज्ञाविशेष। मुनियों की सेवा करने वालों को उपासक कहते हैं। उपासक की ११ प्रतिमाएं इस प्रकार हैं-१. सम्यक्त्व का पालन करना, २. व्रतों का धारण करना, ३. काल में प्रतिक्रमणादि क्रियाएं करना, ४. विशेष तिथियों में पौषध करना, ५. रात्रि में कायोत्सर्ग करना तथा स्नान आदि का परित्याग करना और धोती आदि की लांग न बांधना, ६. ब्रह्मचर्य का धारण करना, ७. सचित्ताहार का त्याग करना, ८. स्वयं आरम्भ न करना, ९. दूसरों से आरम्भ न कराना, १०. उद्दिष्ट आहार का त्याग करना और ११. श्रमणवत आचरण करना। इन सब प्रतिमाओं-प्रतिज्ञाओं का सविस्तार वर्णन दशाश्रुतस्कन्ध में किया गया है।
भिक्षु की १२ प्रतिमाएं इस प्रकार से हैं-एक मास से लेकर सात मास तक सात प्रतिमाएं होती हैं। एक मास की एक प्रतिमा, ऐसे सात मास पर्यन्त सात प्रतिमाएं हुईं तथा आठवीं, नवमीं और दसवीं ये तीन प्रतिमाएं सात-सात अहोरात्र की हैं। ग्यारहवीं प्रतिमा एक अहोरात्र की और बारहवीं केवल एक रात्रि की होती है। तथा –
मासादयः सप्तान्ताः, प्रथमा द्वितीया तृतीया सप्तरात्रिदिना ।
अहोरात्रिकी एकरात्रिकी, एवं भिक्षुप्रतिमानां द्वादशकम् ॥ इनकी विस्तृत व्याख्या दशाश्रुतस्कंधसूत्र की सातवीं दशा में की गई है। अधिक जानने की इच्छा रखने वाले वहां पर देखें। अब फिर कहते हैं -
किरियासु भूयगामेसु, परमाहम्मिएसु य । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १२ ॥
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१. दर्शनं व्रतानि सामायिक पौषध प्रतिमा अब्रह्मचर्यसचित्तमारम्भः प्रेष्यः उद्दिष्टवर्जकः श्रमणभतश्चेति। २. देखो उक्त सूत्र की छठी और सातवीं दशा।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२०४] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं