SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 212
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अर्थात् मनुष्य से मनुष्य को भय, पशु से पशु को भय इत्यादि इहलोक भय है। परलोकभय-भिन्न जाति से भिन्न जाति को भय, जैसे कि मनुष्य को पशु का और पशु को मनुष्य से भय होना। इसका तात्पर्य यह है कि संयमशील भिक्षु को सर्वथा निर्भय होना चाहिए अर्थात् वह न तो किसी से भय खाए और न किसी को भय दे इत्यादि। ___ अब फिर कहते हैं - मएसु बंभगुत्तीसु, भिक्खुधम्ममि दसविहे । जे भिक्खू जयई निच्चं, से न अच्छइ मंडले ॥ १० ॥ मदेषु ब्रह्मचर्यगुप्तिषु, भिक्षुधर्मे दशविधे । • यो भिक्षुर्यतते नित्यं, स न तिष्ठति मण्डले ॥ १० ॥ पदार्थान्वयः-मएसु-मदस्थानों में, बंभगुत्तीसु-ब्रह्मचर्य की गुप्तियों में, दसविहे-दश प्रकार के, भिक्खुधम्मंमि-यतिधर्म में, जे भिक्खू-जो भिक्षु, निच्चं-सदैव, जयई-यत्न करता है, से न अच्छइ मंडले-वह संसार में नहीं ठहरता। . __ मूलार्थ-आठ मद के स्थानों के त्याग में, नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियों के पालन में तथा दस प्रकार के यतिधर्म के आराधन में, जो भिक्षु सदैव यत्नशील रहता है वह इस संसार में परिभ्रमण नहीं करता।, .. टीका-प्रस्तुत गाथा में ८, ९ और १० अंकों से चारित्रविधि की रचना की गई है। (क) आठ मदस्थान-१. जातिमद, २. कुलमद, ३. रूपमद, ४. बलमद, ५. लाभमद, ६. श्रुतमद, ७. ऐश्वर्यमद और ८. तपोमद, ये आठ मद के स्थान कहे जाते हैं। (ख) नव ब्रह्मचर्यगुप्ति-ब्रह्मचर्य की रक्षा करने वाले नियमविशेष को गुप्ति कहा जाता है। उसके नौ भेद हैं-१. स्त्री, पशु और नपुंसक रहित स्थान में निवास करना, २. स्त्रियों की कथा न करना, ३. स्त्री के साथ न बैठना, अथवा जिस स्थान पर स्त्री बैठी हुई थी कुछ समय तक उस स्थान में न बैठना, ४..स्त्री की इन्द्रियों को न देखना, ५. भित्ति आदि के अन्तर से स्त्री के शब्दों को सुनने का प्रयत्न न करना, ६. पूर्वानुभूत विषयों को स्मृति में न लाना, ७. स्निग्ध आहार न करना, ८. प्रमाण से अधिक न खाना और ९. शरीर को विभूषित न करना, ये नौ ब्रह्मचर्य की गुप्तियां अर्थात् ब्रह्मचर्यरूप खेती को सुरक्षित रखने के लिए बाड़ के समान हैं। (ग) दश प्रकार का यतिधर्म-१. क्षमा, २. मुक्ति, ३. आर्जव, ४. मार्दव, ५. लाघव, ६. सत्य, ७. संयम, ८. तपकर्म, ९. त्याग-दान और १०. ब्रह्मचर्य, ये दस भेद भिक्षुधर्म के हैं। सारांश यह है कि आठ प्रकार के मदस्थानों के त्याग, ब्रह्मचर्यसम्बन्धी नव गुप्तियों के पालन तथा दस प्रकार के यतिधर्म के अनुष्ठान में जो भिक्षु सदा तत्पर रहता है, वह इस संसार से मुक्त हो जाता है, अर्थात् कर्मबन्धनों को तोड़कर मोक्ष को प्राप्त हो जाता है। अब फिर कहते हैं - - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [२०३] चरणविही णाम एगतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy