SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 201
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ तं-उसको, पायच्छित्तं-प्रायश्चित्त-तप, आहियं-कहा जाता है। ___मूलार्थ-आलोचना के योग्य दस प्रकार से प्रायश्चित्त का वर्णन किया गया है, जिसका भिक्षु सम्यक् प्रकार से सेवन करता है, वही प्रायश्चित्त-तप कहलाता है। टीका-इस सूत्र में प्रायश्चित्त तप का वर्णन किया गया है। पाप के लिए पश्चात्ताप करना प्रायश्चित्त कहलाता है। लगे हुए दोष को गुरु आदि के समक्ष प्रकट करने और आलोचना के द्वारा उसे शुद्ध करने को आलोचनाह कहते हैं। आदि शब्द से प्रतिक्रमणादि का ग्रहण करना चाहिए। ___ उक्त सारे कथन का अभिप्राय यह है कि आत्मशुद्धि के लिए शास्त्रकारों ने प्रायश्चित्त का विधान किया है, उसके संक्षेप से दस भेद हैं। यथा-१. आलोचनार्ह, २. प्रतिक्रमण, ३. तदुभय, ४. विवेक, ५. व्युत्सर्ग, ६. तपकर्म, ७. छेद, ८ मूल, ९. अनवस्थापन और १०. पाराञ्चिक। इनका विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है, जिज्ञासु जन वहीं से देखें। जिस प्रकार सन्निपात आदि रोगों की निवृत्ति के लिए रसायन औषधियों की उपादेयता है उसी प्रकार आत्म-विशुद्धि के लिए प्रायश्चित्त-तप की विशेष आवश्यकता है-(चिकित्सागम इव दोषविशुद्धिहेतुर्दण्डः) तथा प्रायश्चित्त के जितने भेद ऊपर बतलाए गए हैं, उनमें अर्ह शब्द का सम्बन्ध सर्वत्र कर लेना चाहिए। यथा-आलोचनाह, प्रतिक्रमणार्ह इत्यादि। अब विनय-तप के विषय में कहते हैं - अब्भुट्ठाणं अंजलिकरणं, तहेवासणदायणं । गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥ ३२ ॥ अभ्युत्थानमञ्जलिकरणं, तथैवासनदानम् । गुरुभक्तिभावशुश्रूषा, विनय एष व्याख्यातः ॥ ३२ ॥ पदार्थान्वयः-अब्भुट्ठाणं-अभ्युत्थान देना, अंजलिकरणं-हाथ जोड़ना, तहा-तथा, एव-पूर्ण अर्थ में है, आसण-आसन, दायणं-देना, गुरुभत्ति-गुरु की भक्ति करना, भावसुस्सूसा-भाव-शुश्रूषा करना, विणओ-विनय, एस-यह, वियाहिओ-प्रतिपादन किया गया है। __मूलार्थ-गुरु आदि को अभ्युत्थान देना, हाथ जोड़ना, आसन देना, गुरु की भक्ति करना और अन्तःकरण से उनकी सेवा करना, यह विनय-तप कहा गया है। टीका-प्रस्तुत गाथा में विनय-तप के भेदों का उल्लेख किया है। यथा-१. गुरु, स्थविर और रत्नाधिक को आते देखकर सत्कार के लिए उनके सामने जाना तथा उठकर खड़े होना, २. उनके आगे हाथ जोड़ना, ३. उनको आसन देना, ४. गुरु की अनन्य भक्ति करना और ५. उनकी आज्ञा को श्रद्धापूर्वक पालन करना अथवा भावपूर्वक उनकी सेवा-शुश्रूषा करना, ये पांच भेद विनय-तप के हैं। ___ तात्पर्य यह है कि यह पांच प्रकार का विनय-तप कहा है। इसके अतिरिक्त विनय-धर्म का आराधन करने वाले साधु को उचित है कि यदि कोई छोटा साधु भी उसके पास आए तो उसके साथ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१९२] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy