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________________ विषय का वर्णन करना अभिप्रेत हो उसके नाम का प्रथम निर्देश कर देने से श्रोताओं को उसके समझने में विशेष सुगमता रहती है। इस आशय से ही शास्त्रकार ने यहां पर विनय का निर्देश किया है। इसके अतिरिक्त बाह्य तप के अनुष्ठान से निस्संगता, शरीर की लाघवता, इन्द्रियों पर विजय, संयम की रक्षा, शुभध्यान की प्राप्ति और योगों की निर्मलता होने से पुण्यबन्ध के अतिरिक्त कर्मों की निर्जरा भी होती है और अंतरंग गुणों का भी विकास होता है। 'वुच्छामि' यह 'वक्ष्यामि' के स्थान पर प्राकृत आदेश है। अब अंतरंग तप के भेदों का वर्णन करते हैं, यथा - पायच्छित्तं विणओ, वेयावच्चं तहेव सज्झाओ । झाणं च विउस्सग्गो, एसो अभितरो तवो ॥ ३० ॥ - प्रायश्चित्तं विनयः, वैयावृत्त्यं तथैव स्वाध्यायः । ध्यानं च व्युत्सर्गः, एतदाभ्यन्तरं तपः ॥ ३० ॥ पदार्थान्वयः-पायच्छित्तं-प्रायश्चित्त, विणओ-विनय, वैयावच्चं-वैयावृत्त्य, तहेव-उसी प्रकार, सज्झाओ-स्वाध्याय, झाणं-ध्यान, च-और, विउस्सग्गो-व्युत्सर्ग, एसो-यह, अभितरो-आभ्यन्तर, तवो-तप है। ___मूलार्थ-१. प्रायश्चित्त, २. विनय, ३. वैयावृत्त्य, ४. स्वाध्याय, ५. ध्यान और, ६. कायोत्सर्ग, ये आभ्यन्तर तप के छः भेद हैं। टीका-बाह्य तप की भांति अन्तरंग तप भी छ: प्रकार का है। १. दोषों के लग जाने पर प्रायश्चित्त का. ग्रहण करना, २. बड़ों की विनय करना, ३. स्थविर आदि की वैयावृत्त्य अर्थात् सेवा करना, ४. कर्मों की निर्जरा के लिए स्वाध्याय करना, ५. आत्मशुद्धि के लिए ध्यान करना और ६. काय का व्युत्सर्ग कर देना, ये छः भेद आभ्यन्तर तप के हैं। __ यद्यपि अन्तरंग तप का बाह्य प्रभाव बहुत न्यून होता है, परन्तु अन्तरंग तप कर्म-शत्रुओं के विदारण में वज्र के समान प्रभावशाली है। मोक्षप्राप्ति के साधनों में इसका असाधारण स्थान है। इनमें भी ध्यान, स्वाध्याय और कायोत्सर्ग तो मुमुक्षु के लिए विशेषरूप से उपादेय हैं, क्योंकि इनके द्वारा कर्मों का क्षय बहुत ही शीघ्र होता है। अब प्रथम क्रमप्राप्त प्रायश्चित्त का वर्णन करते हैं - आलोयणारिहाईयं, पायच्छित्तं तु दसविहं । जं भिक्खू वहई सम्मं पायच्छित्तं तमाहियं ॥ ३१ ॥ आलोचनार्हादिकं, प्रायश्चित्तं तु दशविधम् । यद् भिक्षुर्वहति सम्यक्, प्रायश्चित्तं तदाख्यातम् ॥ ३१ ॥ पदार्थान्वयः-आलोयणारिहाईयं-आलोचना के योग्य, पायच्छित्तं-प्रायश्चित्त, दसविह-दस प्रकार से वर्णन किया है, जं-जिसको, भिक्खू-भिक्षु, सम्म-भली प्रकार, वहई-आचरण करता है, उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१९१] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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