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सपरिकर्म-दूसरों से सेवा कराना, दूसरा अपरिकर्म है। इनके निहारी और अनिहारी ये अन्य भी दो भेद हैं। भक्तप्रत्याख्यान और इंगिनीमरण ये दोनों सपरिकर्म हैं, क्योंकि इनमें स्थान-निषद्या और त्वक्परिवर्तन आदि क्रियाएं की जा सकती हैं। भक्तप्रत्याख्यान में साधक स्वयं अथवा और किसी से शरीर सम्बन्धी वैयावृत्य अर्थात् सेवा भी करवा सकता है, परन्तु इंगिनीमरण में तो केवल आप ही उठने-बैठने की क्रिया कर सकता है, किसी दूसरे से नहीं करा सकता। ____ जो पादोपगमन-अनशन-तप है, वह अपरिकर्म कहलाता है, क्योंकि उसमें साधक किसी दूसरे से अथवा स्वयं भी किसी प्रकार की चेष्टा अथवा सेवा नहीं करा सकता, इसलिए यह अपरिकर्म तप कहलाता है।
तात्पर्य यह है कि जिस संलेखना में परिकर्म अर्थात् सेवा आदि है, वह सपरिकर्म और जिसमें सेवा आदि का सर्वथा परित्याग हो वह अपरिकर्म है। इसी प्रकार सकारण और अकारण के विषय में भी समझ लेना चाहिए। भूकम्प या गिरिपतनादि से जो अनशन होता है उसे सकारण कहते हैं और आयु के परिमित समय पर किया गया अनशन अकारण कहलाता है। निहारी और अनिहारी, ये दो भेद भी इसी के हैं। किसी पर्वत आदि की गुफा में किया हुआ अनशन-मरण नीहारी कहलाता है और ग्राम-नगरादि में किया हुआ अनिहारी है, परन्तु आहार का प्रत्याख्यान तो सभी प्रकार के अनशनों में विहित है।
तात्पर्य यह है कि आहार-त्याग की दृष्टि से तो ये सब एक ही हैं और कायचेष्टा आदि की विभिन्नता से इनका पारस्परिक भेद है। __ अब ऊनोदरी-तप के विषय में कहते हैं -
ओमोयरणं पंचहा, समासेण विहाहियं । दव्वओ खेत्त-कालेणं, भावेण पज्जवेहि य ॥१४॥
अवमौदर्यं पञ्चधा, समासेन व्याख्यातम्।
द्रव्येण क्षेत्र-कालेन, भावेन पर्यवैश्च ॥ १४ ॥ पदार्थान्वयः-ओमोयरणं-ऊनोदर-तप, समासेण-संक्षेप से, पंचहा-पांच प्रकार का, वियाहियं-कथन किया है, दव्वओ-द्रव्य से, खेत्त-कालेणं-क्षेत्र और काल से, भावेणं-भाव से, य-और, पज्जवेहि-पर्यायों से। ___मूलार्थ-द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों की दृष्टि से ऊनोदरी-तप के संक्षेप से पांच भेद कहे गए हैं।
टीका-अवम का अर्थ है न्यून, जिसका उदर न्यून अर्थात् ऊना हो, उसको अवमोदर कहते हैं, उसका भाव अर्थात् उदर की न्यूनता-ऊनता-प्रमाण से कम भरना-अवमौदर्य है। तात्पर्य यह है कि प्रमाण से कम आहार करना, अर्थात् उदर को कुछ खाली रखना रूप जो तप है वही ऊनोदरी-तप है। इसके भी द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और पर्यायों से पांच भेद माने गए हैं।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १८०] तवमग्गं तीसइमं अज्झयणं.