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________________ गुण को प्राप्त करता है, अज्जवयाए णं- आर्जवता से, काउज्जुययं काया की ऋजुता अर्थात् अवक्रता, भावुज्जुययं-भाव की ऋजुता, भासुज्जुययं - भाषा की ऋजुता, अविसंवायणंअविसंवादनता-छल क्रिया से रहितपना, जणयइ उपार्जन करता है, अविसंवायणसंपन्नयाए-अविसंवादनता - संपन्न, जीवे - जीव, धम्मस्स-धर्म का आराहए - आराधक, भवइहोता है। मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! ऋजुता - आर्जवभाव से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-ऋजुभाव से काया की ऋजुता अर्थात् अवक्रता, भाव की ऋजुता अर्थात् अवक्रता और भाषा की ऋजुता - अवक्रता तथा अविसंवादपन की प्राप्ति होती है । फिर अविसंवादनता - सम्पन्न जीव धर्म का आराधक बन जाता है। टीका - प्रस्तुत गाथा में आचार्य कहते हैं कि आर्जवता अर्थात् सरलता या निष्कपटता का सम्पादन करने वाला जीव काया से ऋजु, भाव से ऋजु और भाषा से ऋजु अवक्र एवं सरल हो जाता 'हैं तथा अविसंवादनता अर्थात् निश्छलता को प्राप्त करता है। अविसंवादनभाव को प्राप्त हुआ जीव धर्म का आराधक - धर्म की प्राप्ति करने वाला होता है। कुब्जादि वेष का धारण करना, भ्रूविकारादि से लोगों को हंसाना आदि काया की वक्रता है। मन में कुछ और वाणी में कुछ, यह भाव सम्बन्धी वक्रता है। उपहास के लिए अन्य देशों की भाषा का व्यवहार में लाना भाषा की वक्रता है। इसी प्रकार अन्य लोगों के ठगने के निमित्त विलक्षण चेष्टाएं करना विसंवादनता है। जिस ज्ञीव ने ऋजुभाव को धारण किया है उसमें इन उपर्युक्त बातों का अभाव होता है, अर्थात् वह शरीर से ऋजु भाव से ऋजु और भाषा से भी ऋजु-सरल होता है । उसकी कोई भी चेष्टा कपटयुक्त नहीं होती। ऐसा ही मनुष्य धर्म का आराधक होता है तथा शुद्ध अध्यवसायी होने के कारण उसको जन्मान्तरों में भी धर्म की प्राप्ति होती है। अब मार्दव के विषय में फरमाते हैं। - मद्दवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? मद्दवयाए णं अणुस्सियत्तं जणय । अणुस्सियत्तेणं जीवे मिउमद्दवसंपन्ने अट्ठ मयट्ठाणाइं निट्ठावेइ ॥ ४९ । मार्दवेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? मार्दवेनानुत्सुकत्वं जनयति। अनुत्सुकत्वेन जीवो मृदुमार्दवसम्पन्नोऽष्टौ मदस्थानानि निष्ठापयति ( क्षपयति ॥ ४९ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, मद्दवयाए णं - मार्दव अर्थात् मृदुभाव से, जीवे - जीव, किं जणयइ–क्या उपार्जन करता है, मद्दवयाए णं - मार्दव से, अणुस्सियत्तं - अनुत्सुकता का, जय-उपार्जन करता है, अणुस्सियत्तेणं- अनुत्सुकता से, जीवे - जीव, मिउ-मृदु, मद्दव - मार्दव से, संपन्ने - संयुक्त उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १४६ ] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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