SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२ परीषहों पर विजय प्राप्त कर लेता है, तात्पर्य यह है कि समस्त अनर्थों के मूल कारण क्रोध को क्षमा के द्वारा जीत लेने पर सर्व प्रकार के परीषहों को जीता जा सकता है और क्षमावान् पुरुष का कोई शत्रु भी नहीं रहता। अब मुक्ति के विषय में कहते हैं - मुत्तीए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । मुत्तीए णं अकिंचणं जणयइ। अकिंचणे य जीवे अत्थलोलाणं पुरिसाणं अपत्थणिज्जे भवइ ॥ ४७ ॥ मुक्त्या भदन्त ! जीवः किं जनयति ? मुक्त्याऽऽकिञ्चन्यं जनयति। अकिञ्चनश्च जीवोऽर्थलोलानां पुरुषाणामप्रार्थनीयो भवति ॥ ४७ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, मुत्तीए णं-मुक्ति से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस गुण को प्राप्त करता है, मुत्तीए णं-मुक्ति से, अकिंचणं-अकिंचनता को, जणयइ-प्राप्त करता है, य-फिर, अकिंचणे-अकिंचन, जीव-जीव, अत्थलोलाणं-अर्थ के लोभी, पुरिसाणं-पुरुषों का, अपत्थणिज्जे-अप्रार्थनीय, भवइ-होता है। मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! मुक्ति अर्थात् निर्लोभता से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? उत्तर-मुक्ति अर्थात् निर्लोभता से इस जीव को अकिंचनभाव की प्राप्ति होती है, फिर अकिंचनभाव को प्राप्त हुआ जीव अर्थ के अर्थात् धन के लोभी पुरुषों का अप्रार्थनीय होता है, अर्थात् चोर, ठग आदि लोभी पुरुष उसके पीछे नहीं लगते। टीका-प्रस्तुत प्रकरण में मुक्ति का अर्थ निर्लोभता और अकिंचनता परिग्रह-शून्यता है। जो पुरुष निर्लोभी होता है, वह अकिंचन, अर्थात् परिग्रह-रहित होने से चौरादि के द्वारा किसी प्रकार का भी कष्ट नहीं भोगता। तात्पर्य यह है कि द्रव्यशून्य होने से उसको किसी प्रकार की चिन्ता नहीं रहती, जैसे कि धन के लोभी पुरुषों को रहती है। अब आर्जवता के विषय में कहते हैं - अज्जवयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ? अज्जवयाए णं काउज्जुययं, भावुज्जुययं, भासुज्जुययं, अविसंवायणं जणयइ। अविसंवायण-संपन्नयाए णं जीवे धम्मस्स आराहए भवइ ॥ ४८ ॥ आर्जवेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आर्जवेन कायर्जुकता, भावर्जुकता, भाषर्जुकतां, अविसंवादनं जनयति। अविसंवादनसम्पन्नतया जीवो धर्मस्याराधको भवति ॥ ४८ ॥ पदार्थान्वयः-भते-हे भगवन्, अज्जवयाए णं-आर्जवता से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस 'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१४५] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy