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टीका-स्थविरादि मुनियों की यथोचित सेवा का नाम वैयावृत्य है। इस वैयावृत्य अर्थात् नि:स्वार्थ सेवा-भक्ति से यह जीव किसी समय तीर्थंकर-नामगोत्र-कर्म का उपार्जन कर लेता है। सिद्धान्त में वैयावृत्य का फल कर्मों की निर्जरा भी माना गया है।
अब सर्वगुणसम्पूर्णता के विषय में कहते हैं - सव्वगुणसंपन्नयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
सव्वगुणसंपन्नयाए णं अपुणरावित्तिं जणयइ। अपुणरावित्तिं पत्तए य जीवे सारीरमाणसाणं दुक्खाणं नो भागी भवइ ॥ ४४ ॥
सर्वगुणसम्पन्नतया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
सर्वगुणसम्पन्नतयाऽपुनरावृत्तिं जनयति। अपुनरावृत्तिं प्राप्तश्च जीवः शरीरमानसानां दुखानां नो भागी भवति ॥ ४४ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे. भगवन्, सव्वगुणसंपन्नयाए णं-सर्वगुणसंपूर्णता से, जीव-जीव, किं जणयइ-क्या उपार्जन करता है, सव्वगुणसंपन्नयाए णं-सर्वगुणसंपूर्णता से, अपुणरावित्तिं-अपुनरावृत्ति को, जणयइ-उपार्जन करता है, य-फिर, अपुणरावित्तिं पत्तए णं-अपुनरावृत्ति को प्राप्त हुआ, जीवे-जीव, सारीरमाणसाणं-शारीरिक और मानसिक, दुक्खाणं-दुक्खों का, भागी-भोगने वाला, नो भवइ-नहीं होता।
मूलार्थ-प्रश्न-भगवन् ! सर्वगुणसम्पन्नता से जीव किस गुण को प्राप्त करता है? - उत्तर-हे शिष्य ! सर्वगुण-सम्पन्नता से इस जीव को अपुनरावृत्ति-पद की प्राप्ति होती है और अपुनरावृत्तिपद को प्राप्त हुआ जीव शारीरिक और मानसिक सर्व प्रकार के दुःखों से मुक्त हो जाता है।
टीका-सम्यग्-दर्शन, सम्यग्-ज्ञान और सम्यक्-चारित्र से सम्पन्न होना सर्वगुण सम्पन्नता है। इस प्रकार की सर्वगुण-सम्पन्नता अर्थात् सर्व गुणों की प्राप्ति कर लेने से इस जीव को क्या लाभ होता है? यह शिष्य का प्रश्न है।
इसके उत्तर में गुरु कहते हैं कि सर्वगुणसम्पन्नता से अपुनरावृत्ति का लाभ होता है। अपुनरावृत्ति को प्राप्त हुआ जीव सर्व प्रकार के दु:खों से रहित हो जाता है। तात्पर्य यह है कि मोक्षदशा को प्राप्त हो जाने पर न तो कोई कर्म शेष रहता है और न किसी प्रकार के दुःख का उपभोग करना पड़ता है।
अब वीतरागता के विषय में कहते हैं, यथा - वीयरागयाए णं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
वीयरागयाए णं नेहाणुबंधणाणि तण्हाणुबंधणाणि य वोच्छिंदइ। मणुन्नामणुन्नेसु सद्द-फरिस-रूप-रस-गंधेसु सचित्ताचित्त-मीसएसु चेव विरज्जइ ॥ ४५ ॥
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१४३] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं