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________________ टीका-स्थविर-कल्पी मुनि की द्रव्य और भाव-पूर्ण आन्तरिक तथा बाह्य दशा को प्रतिरूपता कहते हैं। दूसरे शब्दों में प्रतिरूप का अर्थ आदर्श है, अर्थात् द्रव्य और भाव दोनों प्रकार से शुद्ध जो स्थविर-कल्पी का वेष है उसको धारण करने वाला जीव किस गुण को प्राप्त करता है? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य कहते हैं कि स्थविर-कल्पादि के समान वेष धारण करने से अधिक उपकरणों का परित्याग करता हुआ जीव द्रव्य और भाव से लघुभूत अर्थात् हलका हो जाता है। द्रव्य से अल्प उपकरण वाला, भाव से अल्पकषायी और अप्रतिबद्धतायुक्त होता है। इस प्रकार लघुताप्राप्त जीव अप्रमत्त अर्थात् प्रमाद से रहित हो जाता है और प्रकट तथा प्रशस्त चिन्हों को धारण करके अर्थात् जीवरक्षा के निमित्त रजोहरणादि को धारण करके निर्मल सम्यक्त्व और समितियुक्त होकर समस्त जीवों का विश्वास-पात्र बन जाता है। जब कि उपकरण अल्प हो गए तथा प्रतिलेखना भी स्वल्प हो गई, अर्थात् प्रतिलेखना में जो अधिक समय लगता था उसमें कमी हो गई, प्रतिलेखना से बचे हुए समय को स्वाध्याय में लगाने से उसके ज्ञान में और निर्मलता प्राप्त हो जाती है, उसके परिणाम-स्वरूप वह चारित्र की शुद्धि करता हुआ परम जितेन्द्रिय और विपुल तपस्वी बन जाता है। . .. सारांश यह है कि अन्तःकरण की विशुद्धि हो जाने पर भी बाह्य वेष की अत्यन्त आवश्यकता है, क्योंकि प्रकट और प्रशस्त साधुवेष इस जीव को कई प्रकार के अकार्यों से बचाए रखता है तथा सर्व प्राणियों का विश्वासपात्र हो जाने से अनेक भव्य जीव उसके उपदेश से सन्मार्ग में प्रवृत्त हो जाते हैं। इस जीव के अप्रमत्त, जितेन्द्रिय और तपस्वी होने में भी इसको [बाह्यवेष को] थोड़े-बहुत अंश में कारणता प्राप्त होती है, इसलिए मुनियों को अपने मुनिवेष में ही रहना उचित है। यहां पर 'समिति' का पुनः-पुनः वर्णन उसकी प्रधानता द्योतनार्थ है, इसलिए पुनरुक्ति दोष की उद्भावना करनी युक्तिसंगत नहीं। "सत्तसमिइसम्मत्ते-समाप्तसत्त्वसमितिः'-यहां पर प्राकृत के कारण से ही क्त-प्रत्ययान्त का पर निपात हुआ है। अब वैयावृत्य के विषय में कहते हैं - वेयावच्चेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? वेयावच्चेणं तित्थयरनामगोत्तं कम्मं निबंधइ ॥ ४३ ॥ वैयावत्येन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? वैयावृत्येन तीर्थकरनामगोत्रं कर्म निबध्नाति ॥ ४३ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, वेयावच्चेणं-वैयावृत्य से, जीवे-जीव, किं जणयइ-क्या उपार्जन करता है, वेयावच्चेणं-वैयावृत्य से, तित्थयरनामगोत्तं-तीर्थङ्कर-नामगोत्र, कम्म-कर्म को, निबंधइ-बांधता है। मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! वैयावृत्य से यह जीव क्या उपार्जन करता है? उत्तर-वैयावृत्य से यह जीव तीर्थंकर-नामगोत्र-कर्म को बांधता है। उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १४२] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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