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________________ आहारपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? आहारपच्चक्खाणेणं जीवियासंसप्पओगं वोच्छिंदइ । जीवियासंसप्पओगं वोच्छिदित्ता जीवे आहारमंतरेणं न संकिलिसइ ॥ ३५ ॥ आहारप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? आहारप्रत्याख्यानेन जीविताशंसाप्रयोगं व्युच्छिनत्ति । जीविताशंसाप्रयोगं व्यवच्छिद्य जीव आहारमन्तरेण न संक्लिश्यते ॥ ३५ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे भगवन्, आहारपच्चक्खाणेणं - आहार के प्रत्याख्यान से, जीवे - जीव, किं जणयइ-किस फल को प्राप्त करता है, आहारपच्चक्खाणेणं - आहार के प्रत्याख्यान से, जीवियासंसप्पओगं- जीविताशंसा-संप्रयोग को अर्थात् जीवन की लालसा को, वोच्छिंदइ- व्यवच्छेद कर देता है, तोड़ देता है, जीवियासंप्पओगं- जीवन की लालसा का, वोच्छिंदित्ता - व्यवच्छेद कर देने से, जीवे - जीव, आहारमंतरेणं आहार के बिना भी, न संकिलिस्सइ - क्लेश को प्राप्त नहीं होता । मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! आहार के प्रत्याख्यान से जीव किस गुण की प्राप्ति करता है? उत्तर - हे शिष्य ! आहार के प्रत्याख्यान से यह जीव जीवन की आशा का व्यवच्छेद कर देता है, अर्थात् जीवन - लालसा से मुक्त हो जाता है और जब वह जीवन की आशा से मुक्त हो जाता है, तब उसको आहार के बिना भी किसी प्रकार का क्लेश नहीं होता। टीका - शिष्य पूछता है कि भगवन् ! जो जीव आहार के सर्वथा त्याग की शक्ति रखता है, अर्थात् आहार का प्रत्याख्यान कर देता है उसको किस गुण की प्राप्ति होती है? इसके उत्तर में गुरुक हैं कि - आहार का प्रत्याख्यान करने से जीवन की जो अभिलाषा है, उसका संप्रयोग अर्थात् जीवन की आशा के निमित्त जो व्यापार किया जाता है उसका व्यवच्छेद हो जाता है, क्योंकि आहार के आधीन ही मनुष्यों का जीवन है, तो जब आहार का प्रत्याख्यान कर दिया, तब जीवन की लालसा का छूट जाना स्वाभाविक है और जब जीवन की लालसा छूट गई, तब आहार के बिना ( तपश्चर्या से) इस जीव को किसी प्रकार का क्लेश उत्पन्न नहीं होता । अनेषणीय आहारादि के प्रत्याख्यान के कारण जब कोई परीषह उपस्थित हो जाता है, तब उसकी आत्मा दृढ़ता-पूर्वक जीवन की आशा को छोड़कर उसका सामना करती है, अर्थात् वह सब प्रकार के क्लेशों से रहित एवं विमुक्त हो जाता है । अपि च, यह कथन ज्ञान- -पूर्वक क्रियाओं के अनुष्ठान के लिए कहा गया है। अब कषायों के विषय में कहते हैं कसायपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? कसायपच्चक्खाणेणं वीयरागभावं जणय | वीयरागभावपडिवन्ने य णं जीवे समसुहदुक्खे भवइ ॥ ३६ ॥ उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१३५] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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