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________________ में नहीं, अतः प्रधान चारित्र की शुद्धि के लिए संभोग-प्रत्याख्यान की परम आवश्यकता है। अब उपधि-प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में कहते हैं - उवहिपच्चक्खाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? उवहिपच्चक्खाणेणं अपलिमंथं जणयइ। निरुवहिए णं जीवे निक्कंखी उवहिमंतरेण य न संकिलिस्सइ ॥ ३४ ॥ उपधिप्रत्याख्यानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? उपधिप्रत्याख्यानेनापरिमन्थं जनयति। निरुपधिको हि जीवो निराकांक्षी उपधिमन्तरेण च न संक्लिश्यते ॥ ३४ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, उवहिपच्चक्खाणेणं-उपधि के प्रत्याख्यान से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण की प्राप्ति करता है, उवहिपच्चक्खाणेणं-उपधि का प्रत्याख्यान करने से, अपलिमंथं-स्वाध्याय में निर्विघ्नता की, जणयइ-प्राप्ति करता है, निरुवहिए-उपधिरहित, जीवे-जीव, निक्कंखी-आकांक्षा से रहित हुआ, य-फिर, उवहिमंतरेण-उपधि के बिना, न संकिलिस्सइ-क्लेश को प्राप्त नहीं होता। ___ मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! उपधि के प्रत्याख्यान से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है ? उत्तर-हे शिष्य ! उपधिप्रत्याख्यान से स्वाध्याय में निर्विघ्नता की प्राप्ति होती है, फिर उपधि से रहित हुआ जीव आकांक्षा रहित होने पर क्लेश को प्राप्त नहीं होता। टीका-यहां पर उपधि से रजोहरण और मुख-वस्त्रिका को छोड़कर अन्य उपधि-उपकरणों का ग्रहण अभिमत है। जिसके द्वारा संयम का निर्वाह किया जाए उसको उपधि कहते हैं। वस्त्र-पात्रादि का उपधि शब्द से ग्रहण किया जाता है। जब मन का धैर्य बढ़ जाए और परीषहों के सहन करने की शक्ति उत्पन्न हो जाए तब उपधि के परित्याग से यह जीव शारीरिक और मानसिक व्यथा से छूट जाता है, अर्थात् उसको उपधि के न होने से किसी प्रकार का शारीरिक अथवा मानसिक क्लेश नहीं होता है तथा उपधि के कारण से स्वाध्याय में पड़ने वाला विघ्न भी दूर हो जाता है। ___ ऊपर बताया जा चुका है कि उपधि का जो परित्याग है वह रजोहरण और मुख-वस्त्रिका को छोड़कर है, अर्थात् इन दोनों का उपधि में ग्रहण नहीं किया जाता। कारण यह है कि ये दोनों साधु के लिंग चिह्न हैं। यदि इनका भी परित्याग कर दिया जाए, तब तो गृहस्थ-लिंग का परित्याग करके साधु-लिंग का ग्रहण करना ही निरर्थक ठहरता है। अतः सिद्ध हुआ कि उपधि से रजोहरण और मुखवस्त्रिका का ग्रहण नहीं किया जाता किन्तु इनको छोड़कर वस्त्रादि अन्य उपकरण ही ग्रहण किए जाते हैं। ___ अब आहार-प्रत्याख्यान के सम्बन्ध में कहते हैं - उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १३४] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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