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तप शब्द से बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही प्रकार के तपों का ग्रहण कर लेना चाहिए।
अब व्यवदान के विषय में कहते हैं - वोदाणेणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
वोदाणेणं अकिरियं जणयइ। अकिरियाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झइ, बुज्झइ, मुच्चइ, परिनिव्वायइ, सव्वदुक्खाणमंतं करेइ ॥ २८ ॥ ____ व्यवदानेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
व्यवदानेनाक्रियां जनयति। अक्रियो भूत्वा तत:पश्चात् सिध्यति, बुध्यते, मुच्यते, परिनिर्वाति, सर्वदुःखानामन्तं करोति ॥ २८ ॥
पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन्, वोदाणेणं-व्यवदान से, जीव-जीव, किं जणयइ-किस गुण का उपार्जन करता है, वोदाणेणं-व्यवदान से, अकिरियं-क्रिया-रहित, जणयइ-हो जाता है, अकिरियाए भवित्ता-क्रिया रहित होकर, तओ पच्छा-तदनन्तर, सिज्झइ-सिद्ध हो जाता है, बुज्झइ-बुद्ध हो जाता है, मुच्चइ-मुक्त हो जाता है, परिनिव्वायइ-परम शान्ति को प्राप्त हो जाता है, सव्वदुक्खाणं-सर्व दु:खों का, अंतं करेइ-अन्त कर देता है।
मूलार्थ-प्रश्न-हे भगवन् ! व्यवदान से जीव को किस गुण की प्राप्ति होती है?
उत्तर-व्यवदान से जीव अक्रिया अर्थात् क्रिया रहित हो जाता है। क्रिया रहित होने से यह जीव सिद्ध, बुद्ध, मुक्त होकर परम शांति को प्राप्त करता हुआ सर्व प्रकार के दुःखों का अन्त कर देता है। ___टीका-पूर्वसूत्र में तप का फल व्यवदान अर्थात् पूर्व-संचित कर्मों का विनाश बताया गया है और इस सूत्र में अब व्यवदान के फल का निरूपण करते हैं। तप के द्वारा जब पूर्वसंचित कर्मों का क्षय हो गया और आत्मा की विशुद्धि हो गई, तब आत्मा की उस विशिष्ट शुद्धि का फल क्या होता है? शिष्य के इस प्रश्न के उत्तर में गुरु कहते हैं कि हे शिष्य ! इस प्रकार शुद्ध हुई आत्मा निष्क्रिय अर्थात् क्रिया से रहित हो जाती है। तात्पर्य यह है कि उसको शुक्ल-ध्यान के चतुर्थ भेद की प्राप्ति हो जाती है तथा ऐसा जीव ईर्यापथिकी-क्रिया से भी रहित हो जाता है। ज्ञानदर्शन के उपयोग से वस्तु-तत्व को यथार्थ रूप से जानने वाला हो जाता है और संसार-चक्र से मुक्त होकर परमनिर्वाण परमशांति-को प्राप्त हो जाता है। इसी को सर्वज्ञ, सर्वदर्शी, सिद्ध, बुद्ध और मुक्त कहते हैं।
कई लोगों का कथन है कि मुक्ति में प्राप्त हुई आत्मा शून्य अवस्था को प्राप्त हो जाती है। परन्तु उनका यह कथन युक्ति और प्रमाण दोनों से ही रहित है। इसी विचार से सूत्रकर्ता ने 'बुद्ध' पद का प्रयोग किया है। जिस समय इस आत्मा के समस्त कर्म क्षय हो जाते हैं, तब वह सादि-अनन्त जो मोक्षपद है उसको प्राप्त करके सर्व प्रकार के शारीरिक और मानसिक दु:खों का अन्त कर देती है अर्थात् फिर वह जन्म-मरण-परम्परा के चक्र में नहीं आती है।
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १२८] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं