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________________ वाचनया निर्जरां जनयति । श्रुतस्य चानुषज्जनेन अनाशातनायां वर्तते । श्रुतस्यानुषज्जनेनाशातनायां वर्तमानस्तीर्थधर्ममवलम्बते । तीर्थधर्ममवलम्बमानो महानिर्जरो महापर्यवसानो भवति ॥ १९ ॥ पदार्थान्वयः - भंते - हे पूज्य ! वायणाएणं-वाचना से, जीवे - जीव, किं जणय - किस गुण की प्राप्ति करता है, वायणाएणं-वाचना से, निज्जरं- निर्जरा का, जणयइ - उपार्जन करता है, य-और, सुयस्स - श्रुत के, अणुसज्जणाए - अनुवर्तन से, अणासायणाए - अनाशातना में, वट्टए - वर्तता है, सुयस्स - श्रुत के, अणुसज्जणाए - अनुवर्तन और, अणासायणाए - अनाशातना में, वट्टमाणे- वर्तता हुआ, तित्थधम्मं - तीर्थधर्म का अवलंबइ - अवलंबन करता है, तित्थधम्मं - तीर्थधर्म का, अवलंबमाणे- अवलम्बन करने से, महानिज्जरे कर्मों की महानिर्जरा, महापज्जवसाणे- महापर्यवसान, भवइ - होता है। मूलार्थ - प्रश्न - हे भगवन् ! वाचना से जीव को क्या फल होता है ? उत्तर - हे शिष्य ! वाचना से कर्मों की निर्जरा होती है तथा श्रुत का अनुवर्तन होने से उसकी (श्रुत की) आशातना नहीं होती, फिर श्रुत के अनुवर्तन और अनाशातना में प्रवृत्त हुआ जीव तीर्थधर्म का अवलम्बन करता है, तीर्थ-धर्म के अवलम्बन से महानिर्जरा और महापर्यवसान ( कर्मों का अन्त ) होता है। • टीका - स्वाध्याय के प्रथम भेदरूप वाचना के फल का वर्णन करते हुए आचार्य कहते हैं कि वाचना का फल कर्मों की निर्जरा करता है, अर्थात् आत्मप्रदेशों में लगे हुए कर्म - पुद्गल उनसे अलग हो जाते हैं और श्रुतका अनुवर्तन सदैव पठन-पाठन होने से श्रुत की आशातना नहीं होती । श्रुत-प्रणाली का व्यवच्छेद नहीं होता । इस प्रकार श्रुत प्रणाली का व्यवच्छेद और आशातना का अभाव होने से यह जीव तीर्थ-धर्म का अवलम्बन करता है। तात्पर्य यह है कि - तीर्थ नाम है गणधर का, उसका जो आचार तथा श्रुत-प्रदानरूप धर्म है उसके आश्रित हो जाता है, अथवा श्रुतरूप तीर्थ का जो स्वाध्यायरूप धर्म है उसके आश्रित होता हुआ यह जीव महानिर्जरा और महापर्यवसान को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् मोक्ष - पद को प्राप्त कर लेता है। कतिपय प्रतियों में ‘अणुसज्जणाए' यह पद नहीं है, परन्तु बृहद्वृत्तिकार ने इसकी मूल गाथा का पाठ मानकर इसको ‘तत्रानुषज्जनमनुवर्तनं तत्र वर्तते कोऽर्थः ? अव्यवच्छेदं करोति' यह व्याख्या की है। अब स्वाध्याय के दूसरे भेद के फल का उल्लेख करते हैं. - पडिपुच्छणयाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? पडिपुच्छणयाएणं सुत्तत्थतदुभयाई विसोहे । कंखामोहणिज्जं कम्मं वोच्छिदइ ॥ २० ॥ प्रतिप्रच्छनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ? प्रतिप्रच्छनया सूत्रार्थतदुभयानि विशोधयति । काङ्क्षामोहनीयं कर्म व्युच्छिनत्ति ॥ २० ॥ 'उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [१२१] सम्मत्तपरक्कमं एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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