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उत्तर में गुरु कहते हैं कि क्षमा के आचरण से इस जीव का चित्त, परम आह्लाद को प्राप्त होता है और आह्लादित चित्त होकर यह जीव संसार के सभी जीवों के प्रति मैत्रीभाव उत्पन्न कर लेता है। यहां पर प्राणी-द्वीन्द्रियादि जीव, भूत-वनस्पति, जीव-पञ्चेन्द्रिय और शेष जीवों की सत्त्व संज्ञा है। इस प्रकार सारे विश्व का मित्र होने से वह अपने भाव को विशुद्ध बनाता हुआ अन्त में निर्भय हो जाता है।
तात्पर्य यह है कि क्षमा से इस जीव को आह्लाद की प्राप्ति होती है और आह्लाद से सर्वजीवों के प्रति प्रेम-भाव उत्पन्न होता है, प्रेम से राग-द्वेष का क्षय होकर भाव की विशुद्धि होती है और भाव विशुद्धि से इस जीव को निर्भयता की प्राप्ति होती है। अब स्वाध्याय के विषय में कहते हैं -
सज्झाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ? । सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्म खवेइ ॥ १८ ॥
स्वाध्यायेन भदन्त ! जीवः किं जनयति ? ।
स्वाध्यायेन ज्ञानावरणीयं कर्म क्षपयति ॥ १८ ॥ पदार्थान्वयः-भंते-हे भगवन् ! सज्झाएणं-स्वाध्याय से, जीवे-जीव, किं जणयइ-किस फल को प्राप्त करता है, सज्झाएणं-स्वाध्याय से, नाणावरणिज्जं कम्म-ज्ञानावरणीय कर्म को, खवेइखपाता है।
मूलार्थ-(प्रश्न)-भगवन् ! स्वाध्याय से जीव किस फल को प्राप्त करता है? उत्तर-स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय करता है। '
टीका-षडावश्यक के अनन्तर स्वाध्याय करना परम आवश्यक होने से प्रस्तुत गाथा में उसके फल का वर्णन किया गया है। यद्यपि ज्ञानावरणीय के अतिरिक्त अन्य कर्मों का भी क्षय होता है, तथापि स्वाध्याय का मुख्य फल ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय है। तात्पर्य यह है कि जिन क्रियाओं के द्वारा ज्ञानाच्छादक कर्म-वर्गणाएं आत्म-प्रदेशों के साथ लग रही हैं वे स्वाध्याय के अनुष्ठान से आत्म-प्रदेशों से पृथक् हो जाती हैं। इसके परिणामस्वरूप में आत्मा की ज्ञान-ज्योति निर्मल हो जाती है।
शास्त्र में स्वाध्याय के पांच भेद वर्णन किए गए हैं, उनमें प्रथम भेद वाचना है। इसलिए अब वाचना के विषय में कहते हैं -
वायणाएणं भंते ! जीवे किं जणयइ ?
वायणाएणं निज्जरं जणयइ। सुयस्स य अणुसज्जणाए अणासायणाए वट्टए। सुयस्स अणुसज्जणाए अणासायणाए वट्टमाणे तित्थधम्म अवलंबइ। तित्थधम्म अवलंबमाणे महानिज्जरे महापज्जवसाणे भवइ ॥ १९ ॥
वाचनया भदन्त ! जीवः किं जनयति ?
उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ १२०] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं