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________________ (अह सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं) अथ सम्यक्त्वपराक्रममेकोनत्रिंशत्तममध्ययनम् गत अट्ठाइसवें अध्ययन में ज्ञानादि मोक्ष-मार्गों का वर्णन किया गया है, परन्तु उनके लिए संवेग की परम आवश्यकता है तथा इन ज्ञानादि गुणों को ग्रहण करने का मुख्य उपाय अप्रमाद है एवं उक्त साधनों के द्वारा जो मोक्ष-गति को प्राप्त करना है वह भी वीतरागतापूर्वक ही हो सकता है। इसलिए प्रस्तुत २९वें अध्ययन में संवेग, अप्रमाद और वीतरागता, इन तीनों अधिकारों का वर्णन किया गया है। यह इनका परस्पर सम्बन्ध है। इस अध्ययन में ७३ प्रश्नोत्तरों का संदर्भ है जो कि मुमुक्षुओं के लिए अत्यन्त उपयोगी तथा उपादेय है। प्रस्तुत अध्ययन का गद्यरूप आदिम सूत्र इस प्रकार है। यथा सुयं मे आउसं ! तेणं भगवया एवमक्खायं। इह खलु सम्मत्तपरक्कमे नाम अज्झयणे समणेणं भगवया महावीरेणं कासवेणं पवेइए, जं सम्मं सद्दहित्ता पत्तियाइत्ता, रोयइत्ता, फासित्ता, पालइत्ता, तीरित्ता, कित्तइत्ता, सोहइत्ता, आराहित्ता आणाए अणुपालइत्ता बहवे जीवा सिझंति, बुज्झंति, मुच्चंति, परिनिव्वायंति, सव्वदुक्खाणमंतं करेंति। श्रुतं मयाऽऽयुष्मन् ! तेन भगवतैवमाख्यातम्। इह खलु सम्यक्त्वपराक्रमं नामाध्ययनं श्रमणेन भगवता महावीरेण काश्यपेन प्रवेदितम्। यत्सम्यक् श्रद्धाय, प्रतीत्य, रोचयित्वा, स्पृष्ट्वा, पालयित्वा, तीरयित्वा, कीर्तयित्वा, शोधयित्वा, आराध्य, आज्ञयाऽनुपाल्य बहवो जीवाः सिध्यन्ति, बुध्यन्ते, मुच्यन्ते, परिनिर्वान्ति, सर्वदुःखानामन्तं कुर्वन्ति। - पदार्थान्वयः-सुयं-सुना है, मे-मैंने, आउसं-हे आयुष्मन् ! तेणं-उस, भगवया-भगवान् ने, एवं-इस प्रकार, अक्खायं-कहा है, इह-इस शासन में वा जगत् में, खलु-निश्चय ही, सम्मत्तपरक्कमे ' उत्तराध्ययन सूत्रम् - तृतीय भाग [ ९९] सम्मत्तपरक्कम एगूणतीसइमं अज्झयणं
SR No.002204
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year2003
Total Pages506
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size11 MB
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