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पञ्चदशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
___टीका-इस गाथा में सामान्यरूप से भिक्षु के सारे गुणों का वर्णन कर दिया गया है अर्थात् प्रस्तुत गाथा में भिक्षु के जिन गुणों का उल्लेख किया है, उनमें अन्य समस्त गुणों का समावेश हो जाता है । साधु, शिल्पकला-चित्र पत्र छेदन आदिके द्वारा अपने जीवन का निर्वाह न करे । उसका किसी प्रकार का भी कोई घर या मठ नहीं होना चाहिए, तथा संसार में साधु का कोई मित्र अथवा शत्रु भी नहीं होना चाहिए अर्थात् उसमें रागद्वेष नहीं होना चाहिए क्योंकि संसार में मित्रता और शत्रुता का कारण राग और द्वेष ही है । राग से मित्रता और द्वेष से शत्रुता पैदा होती है । तथा साधु जितेन्द्रिय होना चाहिए अर्थात् इन्द्रियों पर उसका पूरा काबू हो और सर्वप्रकार से सांसारिक बन्धनों से मुक्त हो एवं अल्पकषायी-संज्वलनरूप कषायों वाला हो। तात्पर्य कि उसमें क्रोध, मान, माया और लोभ की मात्रा बहुत ही स्वल्प हो। इसके अतिरिक्त वह बहुत ही थोड़ा तथा निःसार भोजन करने वाला हो तथा घर को छोड़कर वन में सिंह की तरह अकेला ही निर्भय होकर संसार में विचरने वाला हो । ये उक्त गुण जिस व्यक्ति में विद्यमान हों वह भिक्षु है, वह मुनि है और वही सच्चा त्यागशील साधु है । "अशिल्पजीवी' इस कथन से यह भी ध्वनित होता है कि साधु शिल्पकला के जानने वाला तो भले हो परन्तु उसके द्वारा आजीविका करने वाला नहीं होना चाहिए । श्रीसुधर्मास्वामी, जम्बूस्वामी से कहते हैं कि हे जम्बू ! जैसे मैंने भगवान् से श्रवण किया है, वैसे ही मैंने तेरे प्रति कह दिया है, इसमें मेरी निजी कल्पना कुछ नहीं ।
पञ्चदशाध्ययन समात।