SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 93
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ६६० उत्तराध्ययनसूत्रम् [ पञ्चदशाध्ययनम् असिप्पजीवी अगिहे अमित्ते, जिइन्दिओ सव्वओ विप्पमुक्के। अणुकसाई लहुअप्पभक्खी, चिच्चा गिहं एगचरे स भिक्खू ॥१६॥ त्ति बेमि। इति समिक्सुयं पंचदसमं अन्झयणं समत्तं ॥१५॥ अशिल्पजीव्यगृहोऽमित्रः , ___ जितेन्द्रियः सर्वतो विप्रमुक्तः । अणुकषायी लघ्वल्पभक्षी, त्यक्त्वा गृहमेकचरः स भिक्षुः ॥१६॥ इति ब्रवीमि। इति सभिक्षुकं पञ्चदशमध्ययनं समाप्तम् ॥१५॥ पदार्थान्वयः-असिप्पजीवी-शिल्पकला से आजीविका न करने वाला अगिहे-घर से रहित अमित्ते-मित्ररहित जिइन्दिओ-जितेन्द्रिय सव्वओ-सर्व प्रकार से विप्पमुक्के-बन्धन से मुक्त अणुक्कसाई-अल्प कषाय वाला अप्प-स्तोक लहु-हलका, निस्सार भक्खी-भक्षण करने वाला गिह-घर को चिच्चा-छोड़ करके एगचरे-रागद्वेष से रहित होकर अकेला ही जो विचरता है वा गुणयुक्त होकर अकेला ही जो विचरता है स-वह भिक्खू-भिक्षु है । ति-इस प्रकार बेमि-मैं कहता हूँ। मूलार्थ-अशिल्पजीवी, गृह से रहित, मित्र और शत्रु से रहित, जितेन्द्रिय, सर्वप्रकार से मुक्तबन्धन, अल्प कषाय वाला, स्वल्प और लघु भोजन करने वाला और घर को छोड़कर जो अकेला विचरता है, वह भिक्षु कहलाता है।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy