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________________ ६५८ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ पञ्चदशाध्ययनम् अन्तर नहीं आने देता किन्तु उसके द्वारा अपने आत्मा में उत्तरोत्तर विकास का सम्पादन करता है, वही भिक्षु है। धर्म का मूल सम्यक्त्व है । अब उसी की दृढ़ता के विषय में कहते हैं वायं विविहं समिञ्च लोए, .. सहिए खेयाणुगए य कोवियप्पा । पन्ने अभिभूय सव्वदंसी, उवसन्ते अविहेडए स भिक्खू ॥१५॥ ..... वादं विविधं समेत्य लोके, सहितः खेदानुगतश्च कोविदात्मा । प्राज्ञोऽभिभूय सर्वदर्शी, उपशान्तोऽविहेठकः स. भिक्षुः ॥१५॥ पदार्थान्वयः-वायं-वाद विविहं-विविध प्रकार समिञ्च-जान करके लोएलोक में सहिए-ज्ञानादि से युक्त वा स्वहित के करने वाला य-और खेयाणुगएसंयम के अनुगत तथा कोवियप्पा-कोविदात्मा पन्ने-प्रज्ञावान् अभिभूय-परिषह को जीतकर सव्वदंसी-सर्व जीवों को आत्मा के समान देखने वाला उवसन्तेउपशान्तात्मा अविहेडए-किसी को विघ्न न करने वाला स-वह भिक्खू-भिक्षु होता है। ... मूलार्थ-लोक में होने वाले नाना प्रकार के वादों को जानकर, ज्ञान से युक्त, संयम के अनुगत, कोविदात्मा, प्रज्ञावान् और सर्व प्रकार के परिवहों को जीतकर संसार के सभी प्राणियों को अपने समान देखने वाला उपशान्तात्मा तथा जो किसी को भी विघ्न करने वाला नहीं, वह भिक्षु है। टीका-प्रस्तुत गाथा का संक्षिप्त भावार्थ यह है कि हर प्रकार के दर्शनों के विवाद को सुनकर भी साधु को अपने आत्मीय ज्ञान-सम्यक्त्व से कभी विचलित नहीं होना चाहिए। जैसे कि संसार में अनेक प्रकार के वादी लोग हैं, जो कि अपने २ दर्शन के वशीभूत हुए परस्पर वाद-विवाद करते हुए दृष्टिगोचर हो रहे हैं । कोई
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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