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पञ्चदशाध्ययनम् ] .
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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शब्दा विविधा भवन्ति लोके,
दिव्या मानुष्यकास्तैरश्चाः। भीमा भयभैरवा उदाराः,
यः श्रुत्वा न बिभेति स भिक्षुः ॥१४॥ पदार्थान्वयः-सद्दा-शब्द विविहा-नाना प्रकार के लोए-लोक में भवन्तिहोते हैं दिव्वा-देवसम्बन्धी माणुस्सगा-मनुष्यसम्बन्धी तथा तिरिच्छातिर्यंचसम्बन्धी भीमा-रौद्र शब्द भयभेरवा-भय से भैरव-भयंकर-भय के उत्पादक उराला-प्रधान शब्द जो-जो सोचा-सुनकर न-नहीं विहिजई-भय को प्राप्त होता स-वह भिक्खू-भिक्षु होता है।
मूलार्थ-देवता, मनुष्य और तियंचसम्बन्धी नाना प्रकार के अति भयानक और रौद्र शब्द लोक में होते हैं। उन शब्दों को सुनकर जो भयभीत नहीं होता, वही भिक्षु है।
____टीका-इस गाथा में साधु को परम साहसी और हर प्रकार से निर्भय रहने का उपदेश किया गया है । लोक में अनेक प्रकार के भयानक शब्द होते हैं, उनमें कितनेक देवतासम्बन्धी और कितनेक मनुष्य तथा तिर्यंच सम्बन्धी हैं। उन शब्दों को सुनकर जो भय से त्रसित नहीं होता अर्थात् अपनी धारणा से नहीं गिरता, वह भिक्षु है । तात्पर्य कि कभी २ देवता आदि, परीक्षा के निमित्त अथवा किसी द्वेष के कारण, धर्मध्यान में लगे हुए साधु को धर्मपथ से गिराने के लिए उसके समीप आकर अनेक प्रकार के भयंकर शब्द सुनाते हैं, जिनको सुनकर वह अपने ध्यान से च्युत होकर अपने अभीष्ट साध्य की प्राप्ति से वंचित रह जाय, परन्तु विचारशील साधु को इस प्रकार के भयोत्पादक शब्दों को सुनकर भी अपने धर्मध्यान से कभी विचलित नहीं होना चाहिए । जिस महात्मा ने इस प्रकार की दशा के उपस्थित होने पर भी अपने मन को विचलित नहीं किया, वही अपने अभीष्ट को सिद्ध कर सकता है अर्थात् उसी का आत्मा अपने गुणों के विकास में उत्क्रान्ति पैदा कर सकता है। इसलिए जो व्यक्ति किसी भयोत्पादक शब्द के कारण अपने शांति और धैर्यगुण. के उत्कर्ष में