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उत्तराभ्ययनसूत्रम्
[ शब्दार्थ-कोषः
समुप्पजिजा-उत्पन्न होवे ६६६, ६७३, ६७६ । सरणं माता पिता आदि की शरणा
६५८, ६८०,६८१,६८३, ६८५ | स्मरण करना, शरणभूत ५८२ समुपना-उत्पन्न हुई
१००५
६४६,६०७, १०५२ समुपन्ने-उत्पन्न हो जाने पर ७७६,७७७ | संरम्भ-संरम्भ
१०६१, १०६३ समुप्पन्नं उत्पन्न हो गया ७७५ संरम्मे-संरम्भ में
१०६४ समुविट्ठयं उपस्थित हुए
सरस्सविजयं-स्वर की विद्या समुविट्ठया-समुपस्थित हुई
१०७० सराणि-सर-तालाब को
८४५ समुवाय-कहने लगी
६२३ | सरित्तु-स्मरण करके समुद्दविजये-समुद्र विजय ६५४ सरीर-शरीर के
प८१ समूलियं-जड़ सहित . १०३६ सरीरं-शरीर
७८१ समे-समभूमि में १०८६ सरीरंमि-शरीर में
७२ समोसमभाव रखने वाला ८५४,८५५ | सरीरत्था शरीर में बही हुई .
१०४१ समोइण्णा आ गये ६६९ सरीरम्-यह शरीर
१०५८ सम्म सम्यक् ६३५, ७०६, ७४८,८६६ | सरीरंसि-शरीर में ८५६, १०११, १०६७, ११४७ | सरीरिणो जीव
१०३५ सम्म-सम्यक्-भली प्रकार ७४४ | सरीरपरिमण्डणं-शरीर का मडएनसम्मतसंजुपा-सम्यक्त्व से युक्त ६११ अलङ्कार करना
६६३ सम्महमाणे-संमर्दन करता हुआ ७०७ | सरेहि-सरों में 'सम्मग्गं-सन्मार्ग में १०५१, १०७० संलोए संलोकन करने वाला संभूओ उत्पन्न हुआ १०६४
१०८६ संभन्तो भयभीत सा हुआ ७२६ सल्ल-शल्य
८५६ 'सय-अपना
७१७ | संघहुई-वृद्धि को पाता है ६२६ संयणं-स्वजनों
६७६ संवरे-ढाँपने लगी । सयणा-स्वजन
५६६ संवसित्ताम्वस करके सयणासणाई-शयनासनादि का ६६७, ६६६ संवेग-संवेग-मोक्षाभिलाषा ७३५ सयणेण वा-स्वजनों से क्या ६०० | संविग्गो-संवेग को प्राप्त होकर ६३२ 'सययं निरन्तर ६४४, १०४२ सव्व-सब ५६६, ७६६, ८३६, ८८५, ६३६ सयमेव-स्वयं ही ६७१,६७७
६५७, १०६७, ११३२ 'सयंच-एक बार भी
सव्वं सर्व प्रकार से ६२५, ६३२, ७३० सया-सदा ६९२,६६५, १०८४, ६०८
११४, १२०, ६६४, १११२ १११७, ७२१, ६६३, ६६४, ६४७ सव्वओ सर्व प्रकार से ८५८, ६०६, सयण शय्या ६४५, ६५३
६६०, ६६१, ७२३, ६५० (सरइ स्मरण करता है. ७७६, ७७७ सव्वकामसमप्पिए-मेरे सम्पूर्ण काम . सर-स्वर विद्या ,
६४८ समर्पित हैं, तो फिर ८७७
१०८५
१८५