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उत्तराध्ययनसूत्रम् -
[ चतुर्दशाध्ययनम्
पदार्थान्वयः - भोगे - भोगों को भोच्चा - भोगकर य-और फिर वमित्ताउनको छोड़कर लहुभूय - लघुभूत विहारिणो - अप्रतिबद्ध विहार करने वाले आमोयमाणा - आनन्दित होते हुए गच्छन्ति-जाते हैं कामकमा - स्वेच्छापूर्वक विचरने वाले दिया- पक्षी की इव - तरह ।
मूलार्थ - जो विवेकी पुरुष होते हैं, वे प्रथम भोगों को भोगकर फिर उनको छोड़कर वायु की भांति अत्यन्त लघु होकर अप्रतिबद्ध विहार करते हैं और तथाविध अनुष्ठान में आनन्द मनाते हुए विचरते हैं जैसे कि पचिगण अपनी इच्छापूर्वक गमन करते अथवा विचरते हैं ।
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टीका - जो पुरुष विचारशील और पुण्यवान् होते हैं, वे आयुपर्यन्त इन विषयभोगों में खचित नहीं रहते किन्तु कुछ समय तक इनका उपभोग करके बाद में इनका परित्याग करते हुए आत्मशुद्धि की ओर प्रवृत्त होते हैं। तथा कामभोगों का परित्याग करके वायु की तरह लघु और स्वच्छ होकर बन्धनरहित पक्षी की भांति अप्रति-बद्धविहारी होकर आनन्द में मग्न रहते हुए सदा स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं। तात्पर्य कि सांसारिक विषयभोगों से विरक्त होकर ज्ञानपूर्वक संयम को ग्रहण करने वाले महात्मा पुरुषों की प्रवृत्ति ठीक उस पक्षी के समान हैं कि जो सर्वथा बन्धनरहित, स्वतंत्र और स्वेच्छापूर्वक विचरने वाला है । जिस प्रकार आकाश में विचरने वाले पक्षी को कोई बन्धन नहीं, उसी प्रकार संयमशील को भी किसी प्रकार का लौकिक बन्धन नहीं । जैसे पक्षी निरन्तर विचरता रहता है, ऐसे वे भी सदा अप्रतिबद्धविहारी होते हैं । एवं जिस प्रकार पक्षी स्वेच्छापूर्वक गमन करता है, उसी प्रकार मुनिजन भी जहाँ २ धर्म का अधिक लाभ देखते हैं और संयम की अधिक निर्मलता देखते हैं, वहां पर अपनी इच्छा से जाते हैं तथा रागद्वेष की न्यूनता से उनका जीवन सदा आनन्दपूर्ण और शांतियुक्त रहता है, यह उनमें विशेषता है ।
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राजा को प्रतिबोध करने के निमित्त अब राणी फिर कामभोगादि विषयों के परित्याग की चर्चा करती हुई कहती है
इमे य बद्धा फन्दन्ति मम हत्थखमागया । वयं च सत्ता कामेसु, भविस्सामो जहा इमे ॥४५॥