SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 613
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३८] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ शब्दार्थ-कोषः । ५८२ १०६५ परिभोयम्मि-परिभोगैषणा में १०८२ | परेलोए-परलोक के ७४४ परिभोगेसणा-परिभोगैषणा १०८० परेवि-परलोक भी नहीं है ११२ परियणं परिजनों को ६७६ परेसिं-पर-गृहस्थों के ६५३, ६५४, ७४५ परियत्तन्तीए-व्यतीत होने पर ८६३ परं-परलोक को ७२१, ११०५, १११२ परियाय-प्रव्रज्या रूप ६३४ परम्प र का ११०६, ११३३, ११३६ परियावसे उनमें, कुहेतुओं में बसे ? परं भव-पर भव को ७३४, ७८८, ८६ __अपितु नहीं, किन्तु ७६६ पल्लंघणे-प्रलंघन में १०६३ परिरक्खयन्ता-सर्व प्रकार से रक्षा किए पलायणं मृत्यु से भागने की शक्ति ६११ हुए ६०६ पलालं-पलाल १०१२ परिरक्खिए-सर्व प्रकार से रक्षित की हुई७३३ पलित्तम्मि प्रदीप्त होने पर ७६१ परिवजए-छोड़ देवे ६८८, ६६१, ६६३ | पलेइ भाग जाता है ६१६ ६६७,७४६ | पति-जाते हैं ६२२ परिवजयंतो छोड़ता हुआ ६ ३६ पवजई अंगीकार करता है. ७७,७८६ परिवज्जेजा-सर्व प्रकार से त्याग देवे ६६३ पवण्णा प्राप्त हुए परिवजेजा-छोड़ देवे .. . ७४६ पवत्तियं कहा है ८७६ परिवजित्तु-छोड़कर १०८० पवत्तणे-प्रवृत्ति के लिए परिवारिए-घिरा हुआ । ६०६, ७२३ | पवत्तमाणं-प्रवृत्त हुए १०६१, १०६३, १०६४ परिवारिओ-परिवेष्टित किया ६०७, ६०८ पवन्ना-ग्रहण करने से . ६६१ | पवन्नाणं-प्राप्त हुए १००८, १०१६, १०२६ परिविस्स-भोजन कराकर पवयण-प्रवचन १०७१ परिखुडो-परिवृत होकर, क्योंकि ८७४, ६७० | पवयणं प्रवचन १०७३ | पवयणमाया-प्रवचन माता १०६७ परिव्वए प्रतिबद्धता से रहित होकर पवितक्किय प्रवितर्कित-प्रश्न को १००६ । विचर ६४१,६४६, ६५१, ६५६ पविटे-प्रविष्ट हुआ परिव्वएजा-संयममार्ग में विचरे १३६ पवियक्खणा अविचक्षण ८६०, ६६५ परिसा परिषत् १०७० पविसिज-प्रवेश करे । परिसिंचई-परिसेचन करती थी र पवेविरं-काँपती हुई को ६८२ परिसुद्धं परिशुद्ध . १०७४ पव्वइउं-प्रव्रजित, दीक्षित हो जाना ६७६ परिहिओ-पहन लिए ६५६ | पव्वइए प्रवजित ७०३,८६१,७०५ परीसहा परीषह ७६६, ६४१ | पव्वइएण-प्रव्रजित होने के पश्चात् ६५२ परीसहाई-परीषहों को ६४७ | पव्वइओ प्रव्रजित होकर ७६३, ८७१ परीसहे-परीषहों को सहन करने लगा | पव्वइत्ताण दीक्षित होकर । यहाँ 'च' और 'अर्थ' शब्द पव्वइयो-प्रव्रजित हुआ ७३७ ... पादपूर्ति के लिए हैं. १३४, ६४४ | पव्वइस्सामि=मैं दीक्षित होऊँगा . ७७६ ७१
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy