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________________ २४] उत्तराध्ययनसूत्रम् [शब्दार्थ-कोषः ८२४ १५ ६१२ ८,१००७, १००८, १०१८, १०२६ ढ १११७,१११८, ११२१, ११२३, ११२६ | ढंक ढंक और ११३६ जोइं-ज्योति अग्नि में ६० जोइसंग-ज्योतिषाङ्ग के ११३० जोइसंगविऊ ज्योतिषाङ्ग के वेत्ता हैं ११०५ ण-वाक्यालङ्कार में है जोगेहि-योगों से युक्त हुआ णं-वाक्यालङ्कार में है ५८०, ६३३, ६८३ ८५८ जोवणेण यौवन से __७५५, ७६२, ७८५, ८४३, ___१८, १०३२ णीहासा हास्य रहित हो गई । ६७५ झसोयरो-मत्स्य के समान उदर ६५६ | णे-हमको झाण-ध्यान ८५८,६२० णेत्ता-सुनने वाला पहाणं-स्नान पह झाणं ध्यान के झायइ ध्यान करता है ७२५ ण्हविओ-स्नान कराया गया ६५६ झिज्झइ-क्षीण हुआ जाता है झियायइ=ध्याताथा-धर्मध्यान करता था ७२४ त=उस आहार से ६५४, १२० तउयाई-त्रपु-लाख ८३२ तओ-तदनन्तर ६८३, ७२८, ७३३, ८०६ ठवित्ता स्थापन करके ७५३, ७६२ ८५०, ८७३, ८६१, ८६४, ६१६ ठाणं-स्थान को-मोक्ष को ६१६, १०६२ ६६१, ६६५, ६७०, ६४, १०१६ १०६३, १०६६ १०१७, . १०२०, १०३२, १०४३ ठाणा-स्थान १०७१, १०८६, ११३४ ठाणा-स्थान १०८० तकहमितिचे-वह कैसे ठाणे-वह स्थान १०६४, १०६३ ठाणेहि स्थानों में जीव वसते हैं ७४० तञ्च तथ्य है उसकी ठिओ-स्थित होकर ७७३, ६३१, ६७० तच्छिओ-तराशा गया ६८६ ठिया स्थित हैं | त जहा-जैसे कि १६, ६८० तजणा-तर्जना နို င် तणफासा तृणस्पर्श ७६8 डज्ममाण जलते हुए प्राणियों को तणाणि-तृण १०१२ देखकर ६२८ तणुं-स्तोक यत्न से ६३३ उज्झमाणेसु-जलते हुए ६२८ | तणुयं शरीर में उत्पन्न हुई डहन्ति भस्म करती है. १०४१, १०४२ तण्हा-प्यास से ७८६, ७६६, ८२४ १०४४ | तोहाइ-पिपासा से ६१६
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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