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[ पञ्चविंशाध्ययनम्
उत्तराध्ययनसूत्रम्
अब इसी को दृष्टान्त में घटाते हुए कहते हैं
एवं लग्गन्ति दुम्मेहा, जे नरा कामलालसा । विरत्ता उ न लग्गन्ति, जहा से सुक्क गोल ॥ ४३ ॥ एवं लगन्ति दुर्मेधसः, ये नराः कामलालसाः । विरक्तास्तु न लगन्ति, यथा स शुष्क गोलकः ॥४३॥
पदार्थान्वयः — एवं - इसी प्रकार लग्गन्ति - कर्मों का बन्ध करते हैं जे- जो नरा-पुरुष दुम्मेहा- दुष्ट बुद्धि वाले कामलालसा - कामभोगों की लालसा करने वाले विरत्ता- जो विरक्त हैं उ-निश्चय में है न लग्गन्ति - उनको कर्मों का बन्धन नहीं होता जहा - जैसे से - वह सुक्क - सूखा हुआ गोलए - गोला ।
मूलार्थ - इसी प्रकार जो नर विषयों में मूच्छित हैं, उन्हीं को कर्म चिपटते हैं । और जो विषयों से विरक्त हैं उनको ये कर्म नहीं चिपटते । जैसे कि सूखा हुआ गोला भीत पर नहीं चिपटता ।
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टीका - इस गाथा में अन्वय और व्यतिरेक दृष्टान्त से कर्मों के उपचय की सिद्धि की गई है । जो पुरुष दुष्टबुद्धि वाले और कामभोगों में लालसा रखने वाले हैं, उन्हीं को ये कर्माणु चिपटते हैं। जैसे कि मट्टी का गीला गोला भीत पर चिपट जाता है । इसमें अन्वय दृष्टान्त इसका यह है कि जब विषयवासना उत्पन्नं हुई, तब ही कर्मों का उपचय आत्मा के साथ हो गया अर्थात् विषयवासना के साथ ही कर्मों का बन्ध हो जाता है । व्यतिरेक दृष्टान्त यह है कि जब विषयवासना जाती रही, तब कर्मों का उपचय भी अर्थात् कर्मों का बन्ध भी नहीं होता । जैसे कि शुष्क गोले को भीत पर फेंकने से भी वह उससे नहीं चिपटता, ठीक इसी प्रकार विषयविरक्त आत्मा के साथ भी कर्मों का उपचय नहीं होता । यहाँ पर इतना और स्मरण रहे कि यज्ञमण्डप में उपस्थित हुए विद्वानों के सामने कर्मोपचय के सम्बन्ध में इस प्रकार अति स्थूल दृष्टान्त देने का तात्पर्य इतना ही प्रतीत होता है कि उन विद्वानों के साथ यज्ञमण्डप में बैठे हुए अनेक साधारण बुद्धि रखने वाले मनुष्य भी उपस्थित थे, जो कि इस अति सूक्ष्म विषय को सहज में समझने