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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[पञ्चविंशाध्ययनम्
टीका-विजयघोष द्वारा भिक्षा के लिए की गई प्रार्थना को सुनकर जयघोष मुनि बोले कि मुझे भिक्षा की कोई आवश्यकता नहीं। मेरा प्रयोजन तो यहाँ पर आने का यह है कि तुम इस संसार को छोड़ो और जल्दी ही दीक्षा ग्रहण करो। इस संसाररूपी समुद्र में तुम भ्रमण मत करो—गोते मत खाओ । यह संसार समुद्र बड़ा भयङ्कर है। इसमें अनेक प्रकार के भय रूप आवर्त—चक्र—हैं। तात्पर्य यह है कि जैसे समुद्र अनेक प्रकार के आवर्तों से युक्त अतएव भयङ्कर है, इसी प्रकार यह संसार भी ऐहिक और पारलौकिक भयों से युक्त होने से महाभयङ्कर और नाना प्रकार के दुःखों का घर है। इसलिए तुम इस संसार-सागर से पार होने का अति शीघ्र प्रयत्न करो और वह प्रयत्न यही है कि तुम इस संसार को छोड़कर प्रबजित हो जाओ।
- अब इसी कथन का समर्थन करते हुए फिर कहते हैंउवलेवो होइ भोगेसु, अभोगी नोवलिप्पई । भोगी भमइ संसारे, अभोगी विप्पमुच्चई ॥४१॥ उपलेपो भवति भोगेषु, अभोगी नोपलिप्यते ।
भोगी भ्राम्यति संसारे, अभोगी विप्रमुच्यते ॥४१॥ - पदार्थान्वयः-उवलेवो-कर्मों का उपलेप होइ-होता है भोगेसु-कामभोगों में अभोगी-अभोगी जीव नोवलिप्पई-कर्मों से लिप्त नहीं होता भोगी-भोगी जीव संसारे संसार में भमइ-भ्रमण करता है अभोगी-अभोगी जीव विप्पमुच्चईकर्मबन्धन से छूट जाता है।
. मूलार्थ-कर्मों का उपचय भोगों से होता है और अभोगी जीव कों से लिप्त नहीं होता, तथा भोगी संसार में भ्रमण करता है और अभोगी बन्धन से छूट जाता है।
टीका-जयघोष मुनि फिर कहते हैं कि जो जीव शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शादि विषयों में लगे हुए हैं, वे ही आत्मा में कर्मों का उपचय करते हैं। जिन आत्माओं ने इन विषयों का त्याग कर दिया है, वे कर्मों से लिप्त