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________________ पञ्चविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [ ११२५ टीका - जयघोष मुनि कहते हैं कि जैसे कमल, कीच उत्पन्न होकर जल के ऊपर ठहरता और जल के द्वारा वृद्धि को प्राप्त करता हुआ भी जल से उपलिप्त नहीं होता, ठीक इसी प्रकार जो कामभोगों से उत्पन्न और वृद्धि को प्राप्त करके भी उनमें उपलिप्त नहीं होता उसी को हम ब्राह्मण मानते हैं । तात्पर्य यह है कि जो पुरुष कामभोगों से कमलपत्र की तरह अलिप्त रहता है अर्थात् उनमें आसक्त नहीं होता, वास्तव में वही ब्राह्मण है । यहाँ पर इतना ध्यान रहे कि कामभोग और परिग्रह इनको एक समझकर ही सूत्रकर्ता ने उनकी आसक्ति का निषेध किया है | अतः किसी भी भोग्य अथवा उपभोग्य वस्तु में आसक्ति का न रखना ही सूत्रकार को अभिप्रेत है । अन्यत्र कहा है— 'यदा सर्वं परित्यज्य निस्संगो निष्परिग्रहः । निश्चिन्तश्च चरेद् धर्मं ब्रह्म सम्पद्यते तदा ॥' इत्यादि । इस प्रकार मूलगुणों के द्वारा ब्राह्मणत्व का निरूपण किया गया, अब उत्तर गुणों से उसका वर्णन करते हैं अलोलुयं मुहाजीविं, अणगारं अकिंचणं । असंसत्तं गिइत्थेसु, तं वयं बूम माहणं ॥२८॥ अलोलुपं मुधाजीवितम्, अनगारमकिञ्चनम् असंसक्तं गृहस्थेषु, तं वयं ब्रमो ब्राह्मणम् ॥२८॥ 1 पदार्थान्वयः - अलोलुयं - लोलुपता से रहित मुहाजीविं-मुधाजीवी अणगारंअनगाररहित अकिंचणं-अकिंचन वृत्ति वाला असंसत्तं - असंसक्त गिहत्थेसु - गृहस्थों में तं वयं बूम माहणं - उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । मूलार्थ - जो अज्ञात छः वृत्ति वाला, लोलुपता से रहित, अनगार और अकिंचन - अकिंच वृत्ति वाला तथा गृहस्थों में आसक्ति न रखने वाला है, उसकी हम ब्राह्मण कहते हैं । टीका - प्रस्तुत गाथा में साधु के उत्तम गुणों का वर्णन किया गया है, जो कि ब्राह्मणत्व के सम्पादक हैं। जयघोष मुनि कहते हैं कि ब्राह्मण वह है कि जिसमें आचारसम्बन्धी निम्नलिखित गुण विद्यमान हों अर्थात् इन आचरणीय गुणों से युक्त
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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