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पञ्चविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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पदार्थान्वयः — तस - त्रस य - और थावरे - स्थावर पाणे- प्राणियों को संगण - संक्षेप सेवा विस्तार से वियाणेत्ता - जानकर जो-जो तिविहेण - तीनों योगों से न हिंमड़-हिंसा नहीं करता तं वयं बूम माहणं - उसको हम ब्राह्मण कहते हैं । मूलार्थ - जो त्रस और स्थावर प्राणियों को संक्षेप व विस्तार से भली माँति जानकर उनकी हिंसा नहीं करता, उसको हम ब्राह्मण कहते हैं ।
टीका - ब्राह्मणत्व के सम्पादक अन्य गुणों का वर्णन करने के निमित्त से जयघोष मुनि, विजयघोष प्रभृति ब्राह्मणमण्डली से फिर कहते हैं कि हम ब्राह्मण उसको मानते हैं कि जो त्रस और स्थावर प्राणियों के स्वरूप को समास अथवा व्यास रूप से जानता हुआ उनकी मन, वचन और काया किसी से भी हिंसा नहीं करता । इसका अभिप्राय यह है कि त्रस अथवा स्थावर किसी भी जीव को मन, वचन और शरीर के द्वारा जो स्वयं कष्ट नहीं पहुँचाता, और कष्ट देने के लिए किसी को प्रेरणा नहीं करता और यदि कोई कष्ट देवे तो उसको भला नहीं समझता; तात्पर्य यह है कि तीन योग और तीन 'करणों से जो अहिंसा धर्म का पालन करता है, उसको हम ब्राह्मण कहते अथवा मानते हैं। मन, वचन और काया के व्यापार की योग संज्ञा है । अन्यत्र भी लिखा है कि—'यदा न कुरुते पापं सर्वभूतेषु दारुणम् । कर्मणा मनसा वाचा ब्रह्म सम्पद्यते तदा ।।' अर्थात् जो मन, वचन और कर्म से किसी प्रकार का पाप नहीं करता, वह ब्रह्म को प्राप्त होता है ।
इस प्रकार प्रथम महाव्रत की व्याख्या में ब्राह्मणत्व के स्वरूप का वर्णन किया गया । अब द्वितीय महाव्रत में उसका स्वरूप वर्णन करते हैं—
कोहा वा जइ वा हासा, लोहा वा जइ वा भया । मुलं न वयई जो उ, तं वयं बूम माहणं ॥ २४ ॥ क्रोधाद्वा यदि वा हास्यात्, लोभाद्वा यदि मृषा न वदति यस्तु तं वयं ब्रूमो
पदार्थान्वयः — कोहा - क्रोध से वा-अथवा जइ वा यदि हासा -हास्य सेवाअथवा लोहा-लोभ से जड़ वा-यदि भया-भय से जो-जो मुसं-झूठ न - नहीं वयईबोलता तं-उसको वयं-हम माहणं- - ब्राह्मण बूम - कहते हैं । उ- अवधारण अर्थ में है ।
वा भयात् । ब्राह्मणम् ॥२४॥