________________
१११६ ]
अजाणगा जन्नवाई, विजामाहणसंपया मूढा सज्झायतवसा, भासच्छन्ना इवग्गिणो ॥ १८ ॥ अजानाना यज्ञवादिनः, विद्याब्राह्मणसम्पदाम् । मूढाः खाध्यायतपसा, भस्मच्छन्ना इवाग्नयः ॥१८॥
पदार्थान्वयः – अजाणगा -तत्त्व से अनभिज्ञ जन्नवाई -यज्ञ के कथन करने वाले विजा-विद्या — और माहण संपया - ब्राह्मण की — सम्पदा से अनभिज्ञ मूढा - मूढ़ हैं सज्झाय - स्वाध्याय और तवसा - तप से भासच्छन्ना - भस्माच्छादित अग्गिणोअग्नि की इब-तरह
उत्तराध्ययनसूत्रम्
[ पञ्चविंशाध्ययनम्
मूलार्थ - हे यज्ञवादी ब्राह्मण लोगो ! तुम ब्राह्मण की विद्या और सम्पदा से अनभिज्ञ हो । तथा स्वाध्याय और तप के विषय में भी मूढ़ हो । अतः तुम भस्म से आच्छादित की हुई अग्नि के समान हो । तात्पर्य यह है कि जैसे भस्म से आच्छादित की हुई अग्नि ऊपर से तो शान्त दीखती हैं और उसके अन्दर ताप बराबर बना रहता है, इसी प्रकार तुम बाहर से तो शान्त प्रतीत होते हो परन्तु तुम्हारे अन्तःकरण में कषायरूप अग्नि प्रज्वलित हो रही है ।
टीका — पाँचवें प्रश्न का उत्तर देने के लिए भूमिका का निर्माण करते हुए "जियघोष मुनि कहते हैं कि जिन ब्राह्मण याजकों को आप उत्तम पात्र समझ रहे हैं, वे वास्तव में ब्राह्मणों की विद्या और सम्पत्ति से सर्वथा अनभिज्ञ प्रतीत होते हैं । कारण कि ब्राह्मणों की विद्या आध्यात्मिक विद्या है और सम्पदा अकिंचन भाव है । परन्तु यहाँ पर इन दोनों का ही अभाव दीखता है । स्वाध्याय और तप के विषय में भी ये मोहयुक्त ही प्रतीत होते हैं अर्थात् उनके वास्तविक स्वरूप का इन्हें ज्ञान नहीं है। इसके अतिरिक्त ये भस्माच्छन्न — भस्म से ढकी हुई— अनि के सदृश प्रतीत होते हैं, जो कि बाहर से शान्त और भीतर से कषाय युक्त हैं । तात्पर्य यह है कि जैसे भस्माच्छन्न अग्नि बाहर से देखने में ठण्डी और अन्दर से उष्ण होती है, ये ब्राह्मण लोग भी ऊपर से तो शान्त और दान्त दिखाई. देते हैं परन्तु इनके हृदय को यदि टटोला जाय तो वहाँ कषायरूप अनि प्रचण्ड