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पञ्चविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
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टीका-जिस समय यज्ञशाला में उपस्थित हुए जयघोष मुनि ने विजयघोष के कथन को सुनकर उसके प्रति उक्त आक्षेप रूप प्रश्न किये, तो वह उनका उत्तर देने में असमर्थ होता हुआ, यज्ञ में उपस्थित हुए अन्य ब्राह्मणसमुदाय को अपने साथ लेकर जयघोष मुनि से हाथ जोड़कर पूछने लगा। इस सारे कथन का तात्पर्य यह है कि जयघोष मुनि के आक्षेपप्रधान प्रश्नों के उत्तर देने की अपने में शक्ति न देखकर विजय ने अपने मन में विचार किया कि इस यज्ञमण्डप में उपस्थित हुए मुझ सहित अनेक प्रकाण्ड विद्वानों के समक्ष निर्भय होकर जिस मुनि ने उक्त प्रकार के आक्षेपप्रधान प्रश्न किये हैं, वह अवश्य ही वेदों के तत्त्व का यथार्थ ज्ञान रखने वाला कोई महान् भिक्षु है । ऐसे धारणाशील विद्वान् मुनियों का संयोग कभी भाग्य से ही होता है । अतः इनके किये हुए प्रश्नों के उत्तर भी विनयपूर्वक इन्हीं से पूछने चाहिएँ । और वे उत्तर भी वास्तविक उत्तर होंगे, जिनमें कि फिर किसी प्रकार के सन्देह को भी अवकाश नहीं रहेगा । इसलिए विजयघोष ने अपनी परिषद्विद्वन्मण्डली—के सहित बड़े विनय के साथ हाथ जोड़कर जयघोष मुनि से पूछने की इच्छा प्रकट की। इससे यह भी सिद्ध हुआ कि प्रतिपक्षी होने पर भी, ज्ञानप्राप्ति के लिए तो विनय को अवश्य अङ्गीकार करना चाहिए।
तदनन्तर विजयघोष ने जो कुछ पूछा, अब उसके विषय में कहते हैंवेयाणं च मुहं बूहि, बूहि जन्नाण जं मुहं । नक्खत्ताण मुहं बूहि, बूहि धम्माण वा मुहं ॥१४॥ जे समत्था समुदत्तुं, परमप्पाणमेव य। एयं मे संसयं सव्वं, साहू कहसु पुच्छिओ ॥१५॥ वेदानां च मुखं ब्रूहि, ब्रूहि यज्ञानां यन्मुखम् । नक्षत्राणां मुखं ब्रूहि, ब्रूहि धर्माणां वा मुखम् ॥१४॥ ये समर्थाः समुद्धर्तु, परमात्मानमेव च। एतं मे संशयं सर्व, साधो कथय (मया) पृष्टः ॥१५॥
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