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________________ श्रह जन्नइज्जं पञ्चवीसइमं अज्झयणं अथ यज्ञीयं पञ्चविंशतितममध्ययनम् चौबीसवें अध्ययन में प्रवचन माता का स्वरूप वर्णन किया गया है परन्तु प्रवचन माता का पालन वही कर सकता है जो कि ब्रह्म के गुणों में स्थित हो । इसलिए इस पश्चीसवें अध्ययन में जयघोष मुनि के चरितवर्णन से ब्रह्म के गुणों का वर्णन करते हैं तथा यज्ञ और ब्रह्म के गुणों का वर्णन होने से इस अध्ययन का नाम भी यज्ञीय अध्ययन है। जयघोष ब्राह्मण का पूर्व चरित संक्षेप से इस प्रकार है। यथा— वाराणसी नगरी में दो ब्राह्मण वसते थे। वे दोनों सहोदर भाई तथा परस्पर अत्यन्त प्रेम रखने वाले थे। किसी समय जयघोष स्नान करने के लिए गंगा के तट पर गया । जब वह स्नान करके अपना नित्यकर्म करने में प्रवृत्त हुआ, तब उसने देखा कि एक भयंकर साँप ने निकलकर एक मंडूक को पकड़ लिया और बलात्कार से उसे खाने लगा । मेंढक बेचारा 'चीं चीं' शब्द कर रहा था। उसी समय एक वन का रहने वाला बिल्ला ( विडाल ) वहाँ पर आ निकला । उसने सर्प पर आक्रमण किया और उसे मार डाला । जब वह विडाल उस सर्प को मार कर खाने लगा, तब जयघोष को इस दृश्य से बड़ा आश्चर्य हुआ और इस घटना पर विचार करते २ उसको वैराग्य उत्पन्न हो गया। वैराग्य की धुन में वह कहने लगा कि अहो ! संसार की कैसी विचित्र दशा है। इसकी क्षणभंगुरता कितनी विस्मयोत्पादक है। अभी यह सर्प मेंढक को खाने आया था और अब यह स्वयं एक विडाल का
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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