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[ चतुर्विंशाध्ययनम्
टीका - प्रस्तुत गाथा में तीसरी काय गुप्ति के स्वरूप का दिग्दर्शन कराया गया है । यथा— ऊँचे स्थानों में बैठने में त्वग्वर्तन अर्थात् शयन करने में, ऐसे ही ऊर्ध्वभूमि आदि के उल्लंघन में अथवा गर्त्त आदि के उल्लंघन में और सामान्य रूप से गमन करने में तथा इन्द्रियों को शब्दादि विषयों के साथ जोड़ने आदि बातों में काया का जो व्यापार है, उसको संयम में रखना । तात्पर्य यह है कि इन उक्त क्रियाओं में होने वाले काया योग के निरोध को काय गुप्ति कहते हैं । कायगुप्ति में शरीर का व्यापार बहुत कम होता है और वह भी विवेकपूर्वक ही होता है ।
गुप्त के समय आत्मा प्रायः पद्मासनादि आसनों में ही स्थित पाया जाता है । अतः कर्मनिर्जरा के लिए मन और वचन के साथ काया के निरोध की भी पूर्ण आवश्यकता है
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अब काय गुप्ति के विषय का वर्णन करते हैं। यथासंरम्भसमारम्भे आरम्भम्मि तहेव य । कायं पवत्तमाणं तु, नियत्तेख जयं जई ॥ २५ ॥ संरम्भे समारम्भे, आरम्भे तथैव च । कायं प्रवर्तमानं तु, निवर्तयेतं यतिः ॥२५॥
पदार्थान्वयः – संरम्भे–संरम्भ में समारम्भे - समारम्भ में य-और आरम्मेआरम्भ में पवत्तमाणं - प्रवर्तमान कार्य - काया को नियतेज- निवृत्त करे जयंसंयमशीलं जई - यति ।
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उत्तराध्ययनसूत्रम्
मूलार्थ — प्रयत्नशील यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत हुई काया— शरीर — को निवृत्त करे अर्थात् आरम्भ समारम्भ आदि में प्रवृत न होने दे।
टीका - जैसे पूर्व की गाथाओं में मन और वचन के आरम्भ समारम्भ आदि तीन भेद बतलाये गये हैं, ठीक इसी प्रकार काया के तीन भेद हैं। यथा— यष्टि और मुष्टि आदि से मारने का संकल्प उत्पन्न करके स्वाभाविक रूप से जिसमें काय का संचालन किया जाय, उसे संरम्भ कहते हैं । दूसरे को परिताप देने के लिए