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चतुर्विंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०८६ पदार्थान्वयः-एयाओ-ये पञ्च-पाँच समिईओ-समितियाँ समासेणसंक्षेप से वियाहिया-वर्णन की हैं इत्तो-इसके अनन्तर य-वितर्क में तओ-तीन गुत्तीओ-गुप्तियाँ अणुपुव्वसो-अनुक्रम से वोच्छामि-कहूँगा।
मूलार्थ-ये पाँच समितियाँ संक्षेप से वर्णन की गई हैं । इसके अनन्तर तीनों गुप्तियों का स्वरूप अनुक्रम से वर्णन करता हूँ।
टीका-शास्त्रकार कहते हैं कि इस प्रकार संक्षेप से पाँच समितियों का वर्णन कर दिया गया। अब इसके पश्चात् तीनों गुप्तियों के स्वरूप का मैं वर्णन करता हूँ। तुम सावधान होकर श्रवण करो, यह इस गाथा का संक्षिप्त भावार्थ है। इसके अतिरिक्त 'अणुपुव्वसो' यह आर्ष वचन होने के कारण 'आनुपूर्व्या, आनुपूर्वीतः' इनका प्रतिवचन समझना चाहिए । तथा 'समासेण' का अभिप्राय यह है कि जब सारा जिनप्रवचन इनमें प्रविष्ट है—गर्भित है, तब इनका जितना भी विस्तार किया जाय उतना कम है। - अब पूर्व प्रतिज्ञा के अनुसार गुप्तियों के निरूपण-प्रस्ताव में प्रथम मनोगुप्ति के विषय में कहते हैंसच्चा तहेव मोसा य, सच्चमोसा तहेव य। चउत्थी असच्चमोसा य, मणगुत्तिओ चउव्विहा ॥२०॥ सत्या तथैव मृषा च, सत्यामृषा तथैव च । चतुर्थ्यसत्यामृषा च, मनोगुप्तिश्चतुर्विधा ॥२०॥
· पदार्थान्वयः–सच्चा-सत्या तहेव-उसी प्रकार मोसा-मृषा य-पुनः सच्चमोसा-सत्यामृषा तहेव-उसी प्रकार चउत्थी-चौथी असच्चमोसा-असत्यामृषा य-पादपूर्ति में मणगुत्तिओ-मनोगुप्ति चउविहा-चतुर्विध है।
मूलार्थ-सत्या, असत्या, उसी प्रकार सत्यामृषा और चतुर्थी असत्यामृषा ऐसे चार प्रकार की मनोगुप्ति कही है।
टीका-समितियों के अनन्तर अब शास्त्रकार गुप्तियों का वर्णन करते हैं। उनमें भी प्रधान होने से प्रथम मनोगुप्ति का वर्णन करते हैं । मन के निरोध को मनोगुप्ति कहते हैं। उसके चार भेद हैं । यथा-सत्या, असत्या, सत्यामृषा और