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चतुर्विंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०८३ पदार्थान्वयः-ओहोवहो-ओघोपधि वग्गहियं-औपाहिकोपधि भण्डगंभाण्डोपकरण दुविहं-दो प्रकार का मुणी-मुनि गिएहन्तो-ग्रहण करता हुआ वा-और निक्खिवन्तो-रखता हुआ इम-वक्ष्यमाण विहि-विधि का पउंजेज-प्रयोग करे। . मूलार्थ-ओघोपधि और औपग्रहिकोपधि तथा दो प्रकार का उपकरणइनका ग्रहण और निक्षेप करता हुआ वह साधु वक्ष्यमाण विधि का अनुसरण करे अर्थात् इनका ग्रहण और निक्षेप विधिपूर्वक करे ।
____टीका-इस गाथा में आदान निक्षेप रूप चतुर्थ समिति का विवेचन किया है। यथा—आदान का अर्थ ग्रहण और निक्षेप का अर्थ स्थापन करना या रखना है । किसी भी वस्तु के ग्रहण या निक्षेप करने में साधु के लिए शास्त्रोक्त विधि का अनुसरण करना आवश्यक है । अतः प्रस्तुत गाथा में साधु के लिए यह आज्ञा दी है कि वह अपने उपकरणों के ग्रहण अथवा स्थापन में वक्ष्यमाण विधि का प्रयोग करे अर्थात् आगे कही गई विधि के अनुसार वर्तन करे। साधु के उपकरण को उपधि कहते हैं। वह दो प्रकार की है-एक ओघ अर्थात् औपाधिक, दूसरी औपग्रहिक । इस प्रकार उपधि के औपाधिकोपधि और औपग्रहिकोपधि ये दो भेद हुए । इनमें रजोहरणादि तो औपाधिक उपधि है और दण्डादि को औपाहिक उपधि माना है। सारांश यह है कि इन दोनों प्रकार की उपधि का ग्रहण और निक्षेप मुनि को विधिपूर्वक करना चाहिए । अर्थात् विधिपूर्वक ही ग्रहण करे और विधिपूर्वक ही निक्षेप करे। तभी वह आदान-निक्षेपसमिति का यथावत् पालन कर सकता है। इसका कारण यह है कि विधिपूर्वक की गई क्रिया, कर्म की निर्जरा अथवा पुण्य के बन्धन का कारण बनती है अन्यथा निष्फल या अशुभ कर्म के बन्ध का हेतु हो जाती है। इसलिए आदानसमिति में उपधि के ग्रहण और त्याग में विधि का अवश्य अनुसरण करना चाहिए, जिससे कि उक्त समिति का पूर्णरूप से आराधन हो जाय ।
__ अब विधि का उल्लेख करते हैं । यथाचक्खुसा पडिलेहित्ता, पमजेज जयं जई। आइए निक्खिवेजा वा, दुहओवि समिए सया ॥१४॥