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________________ १०८२ ] उत्तराध्ययनसूत्रम्- [चतुर्विंशाध्ययनम् पदार्थान्वयः-उग्गमुप्पायणं-उद्गम और उत्पादन दोष पढमे-प्रथम एषणा में बीए-दूसरी एषणा में एसणं-एषणा दोषों—शंका आदि दोषों की सोहेजविशुद्धि करे परिभोयम्मि-परिभोगैषणा में चउक-चतुष्क—आहार-वस्त्र पात्र और शय्या की विसोहेज-विशुद्धि करे जयं-यतमान—यतना वाला जई-यति साधु । मूलार्थ-संयमशील यति प्रथम एषणा में उद्गम और उत्पादन आदि दोषों की शुद्धि करे । दूसरी एषणा में-शंकितादि दोषों की शुद्धि करे । तीसरी एषणा में पिंड-शय्या, वस्त्र और पात्र आदि की शुद्धि करे। टीका-एषणा समिति के अवान्तर भेदों में किन २ दोषों की शुद्धिपर्यालोचन करना चाहिए। इस विषय में प्रस्तुत गाथा का अवतार हुआ है । प्रथम एषणा—गवेषणा—में सोलह उद्गमसम्बन्धी और सोलह उत्पादनसम्बन्धी दोष हैं। इनकी शुद्धि करनी चाहिए । दूसरी एषणा-ग्रहणैषणा—में शंकितादि दस दोष हैं, जिनको शुद्ध करना नितान्त आवश्यक है । तीसरी एषणा–परिभोगैषणा—में वस्त्र, पात्र, पिंड और शय्या तथा आहार करते समय निन्दा स्तुति आदि के द्वारा जो पाँच दोष उत्पन्न होते हैं, उनको शुद्ध करना अर्थात् आहारसम्बन्धी निन्दा स्तुति के त्याग द्वारा उनको दूर करना चाहिए। यह एषणासमिति के विषय में संयमशील यति का कर्त्तव्य वर्णन किया गया है । तात्पर्य यह है कि यत्नशील यति भिक्षासम्बन्धी उक्त ४२ और निन्दास्तुतिजन्य पाँच इस प्रकार ४७ दोषों की शुद्धि करके आहारादि का ग्रहण करे । यह एषणासमिति के स्वरूप का दिग्दर्शन है । इसके अनुसार आहारादि क्रियाओं के अनुष्ठान से हिंसादि दोषों का सम्पर्क नहीं होता । अन्यथा दोषादि के लगने की संभावना रहती है। अब आदानसमिति के विषय में कहते हैंओहोवहोवग्गहियं . , भण्डगं दुविहं मुणी। गिण्हन्तो निक्खिवन्तो वा, पउंजेज इमं विहि ॥१३॥ ओघोपधिमौपग्रहिकोपधिं , भाण्डकं द्विविधं मुनिः । गृह्णन्निक्षिपश्च , प्रयुञ्जीतेमं विधिम् ॥१३॥
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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