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________________ [ चतुर्विंशाध्ययनम् पदार्थान्वयः -- एयाई - ये अनन्तरोक्त अट्ठ-आठ ठाणाई -स्थान संजएसंयत परिवजित्तु–छोड़कर असाव असावद्य मियं परिमित - स्तोकमात्र काले - समय पर भासं - भाषा को पन्नवं - प्रज्ञावान् - बुद्धिमान् भासिज - बोले । १०८० ] उत्तराध्ययन सूत्रम् मूलार्थ -- बुद्धिमान् संयत पुरुष उक्त आठ स्थानों को परित्याग कर, यथासमय परिमित और असावद्य भाषा को बोले । टीका - प्रस्तुत गाथा में भाषासमिति के संरक्षण का उपाय और विध का वर्णन किया गया है। बुद्धिमान् साधु ऊपर बतलाये गये क्रोधादि आठ स्थानों को छोड़कर ही निरवद्य — निर्दोष भाषा का व्यवहार करे। वह भी जब तक भाषण करने की आवश्यकता हो, तब तक करे तथा पूछे हुए प्रश्न का उत्तर भी परिमित अक्षरों में ही देने का प्रयत्न करे । इस कथन का सारांश यह है कि संयमशील बुद्धि साधु बोलते समय क्रोधादि के वशीभूत न होवे तथा अपने भाषण को परिमित और समयानुकूल रक्खे । इस प्रकार भाषा का व्यवहार करने से भाषासमिति का संरक्षण होता है अर्थात् असत्य सम्भाषण की बहुत ही कम सम्भावना रहती है । इसके अतिरिक्त समय पर किया हुआ भाषण कभी निष्फल भी नहीं जाता। इसलिए : प्रज्ञाशील साधु को भाषासमिति के संरक्षण का ध्यान रखते हुए हित, मित और निर्दोष भाषा का ही व्यवहार करना चाहिए, यह उक्त गाथा का शास्त्रसम्मत भाव है। अब एषणासमिति के विषय में कहते हैं गवेसणार गहणेय, परिभोगेसणा य जा । आहारोवहिसेज्जाए, एए तिन्नि विसोह ॥ ११ ॥ गवेषणायां ग्रहणे च, परिभोगेषणा च या । आहारोपधिशय्यासु, एतास्तिस्रोऽपि शोधयेत् ॥११॥ पदार्थान्वयः———गवेसणाए– गवेषणा में य-और गहणे - ग्रहणैषणा में यतथा परिभोगेसणा - परिभोगैषणा जा-जो आहार - आहार उवहि- उपधि से जाए - शय्या में एए-इन तिनि-तीन स्थानों की विसोहए - विशुद्धि करे । मूलार्थ – गवेषणा, ग्रहणैषणा और परिभोगैषणा तथा आहार, उपधि .. और शय्या इन तीनों की शुद्धि करे ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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