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चतुर्विशांध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१०७३ टीका-इस गाथा में पाँचों समितियों और तीनों गुप्तियों के नाम का निर्देश किया है। इनमें ईर्या-गतिपरिमाण, भाषा-भाषणविधि, एषणा-निर्दोष आहारादि का विधिपूर्वक ग्रहण करना, आदान-वस्त्र पात्र आदि उपकरणों के ग्रहण
और निक्षेप में यनों से काम लेना और उच्चार–मल मूत्रादि त्याज्य पदार्थों में भी यमों से पराङ्मुख न होना, ये पाँचों समितियाँ कहलाती है। जैसे कि ईर्यासमिति, भाषासमिति आदि के नाम से ऊपर उल्लेख किया गया है । मनोगुप्ति—मन को वश में रखना, वचनगुप्ति-वाणी पर काबू रखना और कायगुप्ति—शरीर को संयम में रखना, ये तीनों गुप्तियाँ कहलाती हैं। इन्हीं को प्रवचन माता कहते हैं । यहाँ पर गुप्ति शब्द का निर्वचन वृत्तिकार ने इस प्रकार किया है-'प्रवचनविधिना मार्गव्यवस्थापनमुन्मार्गनिवारणं गुप्तिः' अर्थात् प्रवचन विधि से सन्मार्ग में व्यवस्थापन और उन्मार्ग गमन से निवारण करने का नाम गुप्ति है । यद्यपि गुप्ति का यह लक्षण आंशिक रूप से समिति में भी पाया जाता है तथापि समिति के प्रविचार रूप और गुप्ति के प्रविचार और अविचार उभयरूप होने से इनमें परस्पर भेद है। - अब इनके विषय में फिर कहते हैंएयाओ अट्ट समिईओ, समासेण वियाहिया । दुवालसंगं जिणक्खायं, मायं जत्थ उ पवयणं ॥३॥ एता अष्टौ समितयः, समासेन व्याख्याताः। . द्वादशांगं जिनाख्यातं, मातं यत्र तु प्रवचनम् ॥३॥
___ पदार्थान्वयः-एयाओ-यह अह-आठ समिईओ-समितियाँ समासेणसंक्षेप से वियाहिया-वर्णन की गई हैं दुवालसंग-द्वादशांग जिणक्खायं-जिनकथित पवयणं-प्रवचन उ-निश्चय ही जत्थ-जिसमें मायं-समाविष्ट–अन्तर्भूत है।
मूलार्थ--ये आठौं समितियां संक्षेप से वर्णन की गई हैं । जिनभाषित द्वादशांग रूप प्रवचन इन्हीं के अन्दर समाया हुआ है। .
टीका-प्रस्तुत गाथा में समिति और गुप्ति रूप आठ प्रवचन माताओं के महत्त्व का वर्णन किया गया है। इसी लिए शास्त्रकार कहते हैं कि इन आठों में