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उत्तराध्ययनसूत्रम्- [त्रयोविंशाध्ययनम् यश वाले गोयम-गौतम को अभिवन्दित्ता-वन्दना करके सिरसा-शिर से तु-पुनः पंचमहन्वयधम्म-पाँच महाव्रतरूप धर्म को भावओ-भाव से पडिवाइ-ग्रहण किया पुरिमस्स-पूर्व तीर्थंकर के और पच्छिमम्मि-पश्चिम तीर्थंकर के मग्गे मार्ग में सुहावहे-सुख के देने वाले तत्थ-उस वन में।
मूलार्थ-इस प्रकार संशयों के दूर हो जाने पर घोर पराक्रम वाले केशीकुमार ने महायशस्वी गौतम स्वामी को शिर से वन्दना करके उस तिन्दुक वन में पाँच महाव्रतरूप धर्म को भाव से ग्रहण किया । कारण कि प्रथम
और चरम तीर्थंकर के मार्ग में पंच यमरूप धर्म का पालन करना बतलाया है, जो कि सुख देने वाला है।
टीका-जब केशीकुमार श्रमण के द्वारा किये जाने वाले सभी प्रश्नों का उत्तर भली प्रकार से गौतम स्वामी ने दे दिया, तब केशीकुमार ने गौतम स्वामी को बड़े नम्रभाव से वन्दना की और भाव से—अन्तःकरण से चतुर्यामरूप धर्म को पंचमहाव्रतरूप में ग्रहण किया । क्योंकि आद्य और चरम तीर्थंकर के शासन में इसी धर्म का आदेश है, जो कि सुख देने वाला है। जब कि इस समय चरम तीर्थंकर भगवान् वर्द्धमान स्वामी का शासन प्रवृत्त हो रहा है, तब मुझको भी उसी के अनुसार प्रवृत्ति करनी होगी। इस विचार से ही केशीकुमार श्रमण ने चतुर्याम के बदले पाँच यमरूप धर्म को अन्तःकरण से ग्रहण किया, यह उक्त गाथाद्वय का अभिप्राय है। 'सुहावहे' यह ‘मग्गे--मार्गे' का विशेषण है [ सुखावहे-कल्याणप्रापके ] । इस कथन से केशीकुमार मुनि की सरलता, निष्पक्षता और सत्यप्रियता आदि मुनिजनोचित गुणों का परिचय विशेष रूप से मिल रहा है, जो कि कल्याण की इच्छा रखने वाले मुनिवर्ग के लिए विशेष मननीय और अनुकरणीय है।
__ अब इन दोनों महापुरुषों के समागम का फल वर्णन करते हैंकेसीगोयमओ निच्चं, तम्मि आसि समागमे। सुयसीलसमुक्करिसो, महत्थत्थविणिच्छओ ॥८॥ केशिगौतमर्यानित्यं , तस्मिन्नासीत् समागमः । श्रुतशीलसमुत्कर्षः , महार्थार्थविनिश्चयः ॥८॥ .