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________________ १०५६ ] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ त्रयोविंशाध्ययनम् अर्णवे महौघे, नौर्विपरिधावति 1 यस्यां गौतम ! आरूढः, कथं पारं गमिष्यसि ॥७०॥ पदार्थान्वयः– अण्णवंसि - समुद्र में महोहंसि - महाप्रवाह वाले में नावानौका भी विपरिधावई - विपरीत रूप से चारों ओर जा रही है जंसि - जिसमें गोयम - हे गौतम ! तू आरूढो - सवार हो रहा है कहूं - कैसे पारंपार को गमिस्मसि - प्राप्त होगा ? मूलार्थ - हे गौतम ! महाप्रवाह वाले समुद्र में एक नौका विपरीत रूप से चारों ओर भाग रही है, जिसमें कि आप आरूढ वा सवार हो रहे हैं तो फिर आप कैसे पार जा सकोगे ? टीका - महान् जलराशि और महान् वेग वाले समुद्र में विपरीत गमन करने वाली अथवा समुद्र के मध्य में इधर-उधर अटकने वाली नौका पर पार जाने की इच्छा से आरूढ हुए, किसी पुरुष को देखकर जैसे उसके किनारे लगने बहुत कम सम्भावना होती है और उसकी इस दशा को देखकर मन में उसके लिए नाना प्रकार के संशय उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार विपरीत गमन करने अर्थात् इधर उधर घूमने वाली नौका पर आरूढ हुए गौतम स्वामी को लक्ष्य में रखकर केशीकुमार मुन उनसे पार होने के विषय प्रश्न करते हैं कि आप इतने बड़े अगाध जलप्रवाह मैं उच्छृंखल प्रवृत्ति से गमन करने वाली नौका पर आरूढ होकर किस प्रकार इस समुद्र को पार कर सकोगे ? अब इस प्रश्न का उत्तर देते हुए गौतम स्वामी कहते हैं कि जाउ अस्साविणी नावा, न सा पारस्स गामिणी । जा निरस्साविणी नावा, सा उं पारस्स गामिणी ॥७१॥ या त्वास्राविणी नौः, न सा पारस्य गामिनी । या निरास्त्राविणी नौः, सा तु पारस्य गामिनी ॥ ७१ ॥ पदार्थान्वयः– जा-जो अस्साविणी - छिद्रसहित नावा - नौका है न-नहीं सा- वह पारस्स - पार गामिणी - जाने वाली है। उ-पुन: जा-जो निरस्साविणीछिद्ररहित नावा - नौका है सा- वह उ-निश्चय ही पारस्स - पार गामिणी - जाने वाली है— पार पहुँचाने वाली है ।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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