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[ १०३१
प्रयोविंशाध्ययनम् ]
हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
चिट्ठसि गोयमा !
अणेगाणं सहस्साणं, मज्झे तेय ते अहिगच्छन्ति, कहं ते निजिया तुमे ॥ ३५ ॥ सहस्राणां मध्ये तिष्ठसि गौतम ! ते च त्वामभिगच्छन्ति कथं ते निर्जितास्त्वया ॥३५॥
अनेकानां
पदार्थान्वयः—अणेगाणं–अनेक सहस्साणं - सहस्रों के मज्झे - मध्य में गोयमा - हे गौतम ! चिट्ठसि - तूं ठहरता है ते - वे शत्रु य-फिर ते तेरे को जीतने के लिए अहिगच्छन्ति - सन्मुख आते हैं कहूं - किस प्रकार ते- वे शत्रु तुमे तूने निञ्जिया - जीते हैं ।
मूलार्थ — हे गौतम! तू अनेक सहस्र शत्रुओं के मध्य में खड़ा है, वे शत्रु तेरे जीतने को तेरे सन्मुख आ रहे हैं, तूने किस प्रकार उन शत्रुओं को जीता है ?
टीका - इस प्रश्न में केशीकुमार मुनि ने जनता को सद्बोध देने के लिए एक बड़ा ही मनोरंजक और शिक्षाप्रद विचार उपस्थित किया है। केशीकुमार कहते हैं कि हे गौतम ! आप हजारों शत्रुओं के बीच घिरे खड़े हो और वे शत्रु भी आपको जीतने के लिए आपकी ओर भागे चले आरहे हैं, तो फिर आपने इन शत्रुओं को कैसे पराजित किया ? कहने का तात्पर्य यह है कि आप अकेले हो और आपके शत्रु अनेक हैं, अनेकों पर एक का विजय प्राप्त करना निस्सन्देह विस्मयजनक है। परन्तु आपने उनको परास्त कर दिया है। अतः आप बतलावें कि आपने किस प्रकार
इन पर विजय प्राप्त की है ?
कुमार के इस उक्त प्रश्न के उत्तर में गौतम स्वामी ने जो कुछ कहा अब उसका वर्णन करते हैं
एगेजिए जिया पंच, पंचजिए दसहा उ जिणित्ता णं, सव्वसत्तू एकस्मिन् जिते जिताः पञ्च पञ्चसु जितेषु दशधा तु जित्वा, सर्वशत्रून् जयाम्यहम् ॥३६॥
जिया दस । जिणामहं ॥ ३६ ॥
जिता दश ।