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उत्तराध्ययनसूत्रम्- .
[प्रयोविंशाध्ययनम्
करने से इन दोनों की सर्वज्ञता में तो कोई विरोध नहीं आता ? क्योंकि जब सर्वज्ञता दोनों की तुल्य है तब उनके धार्मिक नियमों में भी कोई भेद नहीं होना चाहिए,
और यदि भेद किया गया तो इनकी सर्वज्ञता भी संदेहास्पद हो जावेगी ! तात्पर्य यह है कि दोनों में एक ही सर्वज्ञ ठहरेगा, या तो भगवान महावीर ही सर्वज्ञ ठहरेंगे या भगवान पार्श्वनाथ को ही सर्वज्ञ मानना पड़ेगा । यहाँ पर तो एक तीर्थंकर के धर्मसम्बन्धि नियमों में दूसरा तीर्थंकर विभेद करके हस्तक्षेप कर रहा है, इस विचार से तो एक को अल्पज्ञ और दूसरे को सर्वज्ञ अवश्य मानना पड़ेगा। दोनों का सर्वज्ञ होना कठिन है। इसी आशय से केशीकुमार गौतम स्वामी को मेधावी का सम्बोधन देते हुए कहते हैं कि क्या आपको इस विषय में सन्देह उत्पन्न नहीं होता ? यहाँ पर गौतम स्वामी के लिए जो मेधावी विशेषण दिया गया है उससे गौतम स्वामी को प्रतिभा सम्पन्न और विशिष्ट ज्ञानवान् समझकर उनसे पूर्वोक्त प्रश्न का यथार्थ अथ च सन्तोषजनक उत्तर प्राप्त करने की आशा ध्वनित की गई है।
केशीकुमार के इस प्रश्न को सुनकर उसके उत्तर में श्री गौतम स्वामी ने जो कुछ कहा अब उसका वर्णन करते हुए कहते हैं । यथातओ केसिं बुवन्तं तु, गोयमो इणमब्बवी। पन्ना सभिक्खए धम्म, तत्तं तत्तविणिच्छियं ॥२५॥ ततः केशिनं ब्रुवन्तं तु, गौतम इदमब्रवीत् । प्रज्ञा समीक्षते धर्मतत्त्वं तत्त्वविनिश्चयम् ॥२५॥
पदार्थान्वयः-तओ-तदनन्तर केसिं-केशीकुमार के वुवन्तं-बोलने पर उसके प्रति गोयमो-गौतम इणं-यह अब्बवी-कहने लगे पन्ना-प्रज्ञा धम्म-धर्म के तत्तंतत्व को समिक्खए-सम्यक् प्रकार से देखती है तत्त-तत्त्व का विणिच्छियं-विनिश्चय होता है धर्म में तु-अवधारण अर्थ में है।
मूलार्थ-तदनन्तर इस प्रकार कहते हुए केशीकुमार के प्रति गौतम, स्वामी ने कहा कि-जीवादि तत्वों का विनिश्चय जिस में किया जाता है ऐसे धर्म सस्व को प्रज्ञा ही सम्यक् देख सकती है। ..