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त्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
[१००५ मूलार्थ-महान यशवाले, केशीकुमार श्रमण और श्रीगौतमस्वामी दोनों ही उस नगरी में विचरने लगे। ये दोनों ही इन्द्रियों को वश में रखनेवाले और ज्ञानादि समाधि से युक्त थे। ... टीका-प्रस्तुत गाथा में उक्त दोनों महर्षियों के श्रावस्ती में विचरने और उनके दान्त और समाहित चित्त होने का वर्णन किया गया है। ये दोनों ही महान यशस्वी थे । तात्पर्य यह है कि विद्या और तप के प्रभाव से उनका सर्वत्र यश फैला हुआ था । इसके अतिरिक्त वे शान्त और दान्त अर्थात् मन वचन और शरीर पर उनका पूर्ण अधिकार था । समस्त इन्द्रिये उनके वश में थीं; और उनका मन निर्विकार अतएव शान्त और समाधियुक्त था । इस कथन का अभिप्राय यह है कि वे दोनों महात्मा, परस्पर की निन्दा और पैशुन्यादि दोषों से सर्वथा रहित और खाध्याय तथा स्वात्मध्यान में सदा निमग्न रहते थे, इसलिए श्रावस्ती में उनके विचरने अर्थात् निवास करने से धर्म की अधिकाधिक प्रभावना हो रही थी। 'विहरिसु' यह बहुवचन की क्रिया प्राकृत में द्विवचन के अभाव होने से प्रयुक्त की गई है। ___ फिर कहते हैंउभओ सीससंघाणं, संजयाणं तवस्सिणं । तत्थ चिन्ता समुप्पन्ना, गुणवन्ताण ताइणं ॥१०॥ उभयोः शिष्यसंघानां, संयतानां तपस्विनाम् । तत्र चिन्ता समुत्पन्ना, गुणवतां त्रायिणाम् ॥१०॥
___पदार्थान्वयः-उमओ-दोनों के सीससंघाणं-शिष्य वर्ग को संजयाणंसंयतों को तवस्सिणं-तपस्वियों को तत्थ-वहाँ पर चिन्ता-शंका समुप्पन्ना-उत्पन्न हुई गुणवन्ताण-गुणवानों और ताइणं-षटकाय के रक्षकों को। : मूलार्थ-वहाँ पर दोनों के शिष्य-समूह के अन्तःकरण में शंका उत्पन्न हुई । वह शिष्य-समूह संयत, गुणवान् तपस्वी और पदकाय का रक्षक था।
टीका-केशीकुमार श्रमण और गौतममुनि, जबकि श्रावस्ती के भिन्न २ उद्यानों में ठहरे हुए थे तब किसी समय दोनों के शिष्य-समुदाय की नगरी में