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________________ प्रयोविंशाध्ययनम् ] हिन्दीभाषाटीकासहितम् । [१००१ मूलार्थ-उस नगर के समीपवर्ति तिन्दुक नामा उद्यान में वे निर्दोष शय्या संस्तारक पर विराजमान हुए। टीका-श्रीकेशीकुमार श्रमण प्रामानुग्राम विचरते हुए श्रावस्ती में पधारे। उसके समीपवर्त्ति एक तिन्दुक नाम का जो उद्यान था उसमें उन्होंने निर्दोष जीव जन्तु से रहित भूमि को देखकर किसी शिला फलक आदि पर अपना आसन लगा दिया अर्थात् शांतिपूर्वक समाहित चित्त से वे उस उद्यान में निवास करने लगे। प्रस्तुत गाथा में 'तंमी नयरमंडले' इस वाक्य में 'नयरी' के स्थान में जो लिंग का व्यत्यय है वह आर्ष वाक्य होने से किया गया है । अन्यथा स्त्रीलिंग का निर्देश होना चाहिए था। तथा 'मंडल' शब्द यहाँ पर सीमा का वाचक है जिसका तात्पर्य यह निकलता है कि वह उद्यान श्रावस्ती के अति दूर व अति निकट नहीं किन्तु नगरी के समीपवर्त्ति था। तदनन्तर जो कुछ हुआ अब उसका वर्णन करते हैंअह तेणेव कालेणं, धम्मतित्थयरे जिणे । भगवं वरमाणित्ति, सव्वलोगम्मि विस्सुए ॥५॥ अथ तस्मिन्नेव काले, धर्मतीर्थकरो जिनः । भगवान् वर्धमान इति, सर्वलोके विश्रुतः ॥५॥ ___पदार्थान्वयः-अह-अनन्तर तेणेव-उसी कालेणं-काल में धम्मतित्थयरेधर्मरूप तीर्थ के करने वाले जिणे-रागद्वेष को जीतनेवाले भगवं-भगवान बद्धमाणित्तिवर्द्धमान इस नाम से सव्वलोगम्मि-सर्व लोक में विस्सुए-विशेष रूप से प्रसिद्ध । - मूलार्थ—उस समय पर, सर्वलोक में विख्यात, रागद्वेष के जीतनेवाले भगवान् वर्द्धमान धर्मतीर्थ के प्रवर्तक थे । टीका-जिस समय तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ के सन्तानीय शिष्य केशीकुमार श्रावस्ती में आये उस समय धर्मतीर्थ के प्रवर्तक भगवान् वर्द्धमान स्वामी, जिन अर्थात् तीर्थंकर के नाम से लोक में विख्यात हो रहे थे। तात्पर्य यह है कि वह समय भगवान् वर्द्धमान स्वामी के शासन का था । .
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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