________________
अह केसिगोयमिजं तेवीसइमं अज्झयणं
अथ केशिगौतमीयं त्रयोविंशमध्ययनम्
इस अनन्तरोक्त अध्ययन में यह वर्णन किया गया है कि यदि किसी कारणवश संयम में शंका आदि दोषों की उत्पत्ति हो जाय अर्थात् संयम में शिथिलता आ जाय तो रथनेमि की तरह फिर से संयम में दृढ हो जाना चाहिए । अपि च यदि औरों के भी उक्त शंकादि दोष उत्पन्न हो जायँ तो उनकी निवृत्ति के लिए भी शीघ्र प्रयत्न करना चाहिए, जैसेकि केशी और गौतम के शिष्यों की शंकाओं को निवृत्त करने का प्रयत्न किया गया है। बस, बाईसवें और तेईसवें अध्ययन का यही परस्पर सम्बन्ध है।
- अब प्रस्तुत अध्ययन में प्रतिपाद्य विषय की संगति के लिए प्रथम तेईसवें तीर्थंकर भगवान् पार्श्वनाथ का वर्णन करते हैं, जिसकी आदिम गाथा इस प्रकार है
जिणे पासित्ति नामेणं, अरहा लोगपूइओ। संबुद्धप्पा य सव्वन्नू, धम्मतित्थयरे जिणे ॥॥ जिनः पार्श्व इति नाम्ना, अईन् लोकपूजितः। संबुद्धात्मा च सर्वज्ञः, धर्मतीर्थकरो जिनः ॥१॥