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हिन्दीभाषाटीकासहितम् ।
दट्ठूण
रहनेमिं तं भग्गुजोयपराजियं
राईमई असंभंता, अप्पाणं संवरे तहिं ॥ ३९ ॥
द्वाविंशाध्ययनम् ]
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दृष्ट्वा रथनेमिं तं भग्नोद्योगपराजितम्
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पदार्थान्वयः—दट्ठूण
राजीमत्यसम्भ्रान्ता आत्मानं समवारीत् तत्र ॥३९॥ -देखकर तं - उस रहनेमीं रथनेमि को जो भग्गुजोयभग्नोद्योग अर्थात् संयम से भग्नचित्त हो रहा था पराजियं - स्त्रीपरिषह से पराजित था राईमई - राजीमती असंभंता - असंभ्रान्त हुई तर्हि - वहाँ पर अप्पाणं- अपने आत्मा को—शरीर को संवरे - ढाँपने लगी ।
मूलार्थ — भग्नचित्त और स्त्रीपरिषह से पराजित हुए उस रथनेमि को देखकर असंभ्रान्त - निर्भय हुई राजीमती ने वहाँ अपने आत्मा - शरीर को aa से ढाँप लिया |
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टीका - जिस समय राजीमती ने संयमविषयक भग्नचित्त और स्त्रीपरिषह से पराजित हुए रथनेमि को देखा तो उसने वस्त्रों से अपने शरीर को ढाँप लिया और वह निर्भय हो गई। सती राजीमती के निर्भय होने के दो कारण हैं। एक तो सती को अपने आत्मा पर पूर्ण विश्वास था। दूसरे वह यह समझती थी कि रथनेमि राजपुत्र है, उच्चकुल उत्पन्न हुआ है, अतः कुलीन होने के कारण वह मेरे ऊपर Porn कभी नहीं करेगा किन्तु विपरीत इसके यदि उसको उचित शब्दों में समझाया जायगा तो वह अपने इस आत्मपतन से सम्हल जायगा । जो कुल सम्पन्न होते हैं, यदि अपने कर्तव्य से च्युत भी हो जायँ तो भी वे सहसा ऐसे कार्य में प्रवृत्त नहीं होते, जो कि सर्वथा जघन्य और साधुजनविगर्हित हो प्रत्युत समझाने पर वे उससे निवृत्त भी हो जाते हैं। इसी विचार से राजीमती असंभ्रान्त हो गई ।
अब इसी विषय को स्फुट करते हुए राजीमती के सम्बन्ध में फिर कहते हैं—
अह सा रायवरकन्ना, सुट्टिया नियमव्वए । जाई कुलं च सीलं च, रक्खमाणी तयं वयं ॥४०॥