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उत्तराध्ययनसूत्रम्-
[द्वाविंशाध्ययनम्
इस प्रकार सामान्य रूप से अपने भावों को प्रकट करने के अनन्तर अब रथनेमि विशेष रूप से उनको प्रकट करता है
एहि ता भुजिमो भोए, माणुस्सं खु सुदुल्लहं। भुत्तभोगा तओ पच्छा, जिणमग्गंचरिस्समो ॥३८॥ एहि तावद्भुञ्जीवहि भोगान्, मानुष्यं खलु सुदुर्लभम् । भुक्तभोगौ ततः पश्चात्, जिनमार्ग चरिष्यावः ॥३८॥
पदार्थान्वयः-एहि-इधर आ ता-पहले हम दोनों भोए-भोगों को धुंजिमो- .. भोगें माणुस्सं-मनुष्यजन्म खु-निश्चय ही सुदुल्लहं-अति दुर्लभ है भुत्तभोगा-भोगों को भोगकर तओ-फिर पच्छा-पीछे हम दोनों जिणमग्गं-जिनमार्ग का चरिस्समोआचरण करेंगे।
मूलार्थ-तुम इधर आओ। प्रथम हम दोनों भोगों को भोगें क्योंकि यह मनुष्यजन्म निश्चय ही मिलना अति कठिन है । अतः भुक्तभोगी होकरभोगों को भोगकर फिर पीछे से हम दोनों जिनमार्ग को ग्रहण कर लेंगे।
टीका-रथनेमि, सती राजीमती से कहता है कि सुन्दरि ! आओ। हम दोनों सांसारिक विषय-भोगों का आनन्दपूर्वक सेवन करें क्योंकि यह मनुष्यजन्म अत्यन्त दुर्लभ है। इसमें कामभोगों का यथारुचि सेवन करना ही सार है और यथारुचि विषय-भोगों का उपभोग करके फिर दीक्षा भी ग्रहण कर लेंगे इत्यादि । प्रस्तुत गाथा में रथनेमि के विकृत चित्त का चित्रण बहुत ही सुन्दरता से किया गया है । शास्त्रकारों ने स्थान स्थान में स्त्रीसंसर्ग से बचने का साधु को जो उपदेश किया है, उसका भी यही उद्देश्य है । कारण कि यह इन्द्रियसमूह बड़ा बलवान् है। इसका निग्रह करना कोई साधारण बात नहीं है। इसलिए साधु को स्त्रीसंसर्ग से सदैव दूर रहना चाहिए अन्यथा. राजीमती को देखते ध्यानमग्न रथनेमि की जो दशा हुई थी, वही दशा सब की होगी; इसमें कोई अत्युक्ति नहीं। - अब राजीमती के विषय में कहते हैं