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________________ १८२] उत्तराध्ययनसूत्रम् [ द्वाविंशाध्ययनम् AAAAAAAANI.APN भीता च सा तत्र दृष्ट्वा, एकान्ते संयतं तकम् । बाहुभ्यां कृत्वा संगोपं, वेपमाना निषीदति ॥३५॥ ___ पदार्थान्वयः-य-और भीया-भयभीत होती हुई सा-राजीमती तहि-वहाँ पर एगंते-एकान्त में तयं-उस संजयं-संयत को दटुं-देखकर बाहाहि-अपनी दोनों भुजाओं से संगुप्फं-स्तनादि को गुप्त काऊं-करके वेवमाणी-काँपती हुई निसीयई-बैठ गई । मूलार्थ-वहाँ पर एकान्त स्थान में उस संयत को देखकर भयभीत होती हुई राजीमती अपनी दोनों भुजाओं से अपने शरीर को गुप्त करके कॉपती हुई बैठ गई। ____टीका-उस गुफा में जिस समय राजीमती ने रथनेमि नाम के एक साधु को बैठे देखा तो वह भय के मारे काँप उठी और अपनी दोनों भुजाओं से अपने स्तनमंडल आदि को वेष्टित करके मर्कटबन्ध से बैठ गई । अन्धकारमयी गुफा में जहाँ कि दूसरा कोई व्यक्ति नहीं, ऐसे एकान्त स्थान में नग्न अवस्था में खड़ी हुई स्त्री का किसी पुरुष को देखकर भयभीत होना बिलकुल स्वाभाविक है । इसलिए सती राजीमती का भययुक्त होकर कम्पायमान होना भी सम्भव ही था। कारण कि ऐसे एकान्तस्थान में कामासक्त पुरुष द्वारा बलात्कार होने की पूर्ण सम्भावना रहती है। अतः अपने शीलव्रत के खंडित होने के भय से और यथाशक्ति रक्षा करने के उद्देश्य से काँपती हुई राजीमती यथाकथंचित् अपने गुप्त अंगों को अपनी भुजाओं द्वारा छिपाती हुई बैठ गई। अब रथनेमि के विषय में कहते हैंअह सोऽवि रायपुत्तो, समुद्दविजयंगओ । भीयं पवेविरं दटुं, इमं वक्कमुदाहरे ॥३६॥ अथ सोऽपि राजपुत्रः, समुद्रविजयाङ्गजः । भीतां प्रवेपितां दृष्ट्वा, इदं वाक्यमुदाहृतवान् ॥३६॥ पदार्थान्वयः-अह-अथ सो-वह रायपुत्तो-राजपुत्र रथनेमि वि-भी समुद्दविजयंगओ-समुद्रविजय के अंग से उत्पन्न होने वाला भीयं-डरी हुई पवेविरंकाँपती हुई को दडे-देखकर इम-यह वक्कम्-वाक्य उदाहरे-कहने लगा।
SR No.002203
Book TitleUttaradhyayan Sutram Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherJain Shastramala Karyalay
Publication Year
Total Pages644
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_uttaradhyayan
File Size12 MB
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